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चकित भँवरि रहि गयो, गम नहिं करत कमलवन,
अहि फन मनि नहिं लेत, तेज नहिं बहत पवन वन।
हंस मानसर तज्यो चक्क चक्की न मिलै अति,
बहु सुंदरि पदिमिनी पुरुष न चहै, न करै रति।
खलभलित सेस कवि गंग भन, अमित तेज रविरथ खस्यो,
खानान खान बैरम सुवन जबहिं क्रोध करि तंग कस्यो॥
कहा जाता है कि यह छप्पय अब्दुर्रहीम ख़ानख़ाना को इतना पसंद आया कि उन्होनें केवल इस एक छप्पय के लिए कविवर गँग को छत्तीस लाख रूपए का ईनाम दिया था।
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