मरने से पहले
वह चीखी थी,
लड़ी थी
जाहिर था,
पर उसकी चीख गयी कहाँ
तफ़्तीश जारी है...
दस खरोंचे उसके बदन पर
और तेज दांतों के निशान
बड़ा अजीब पशु था
डंडे हिलाते
उसके मुंह पर से भिनकती मक्खियाँ हटाते
तफ़्तीश में लगे हैं वे,
डायरी में कुछ लिखा जा रहा है,
पता करो गांवों में,
पहाड़ियों में,
जंगलों में,
चीख आखिर गयी कहाँ?
चीख मिले तो शिनाख्त हो पशु की!
पर पहाड़ियां चुप,
गाँव वाले चुप,
दिहाड़े पर आये मज़दूर चुप,
कुल्हाड़ियाँ, झाड़ियाँ सब चुप,
चीख नहीं मिली ...
जंगल को जैसे काठ मार गया हो,
रात भर सिर्फ वही तो भागता फिरा था
उस चीख के पीछे,
कभी इस छोर तो कभी उस छोर
फिर ठहर गया था वहां
जहाँ से बंगले का दरवाज़ा बंद होने के बाद चौकीदार,
खांसता हुआ चला गया था
अपने आउट हाउस की तरफ,
और चीख?
उस रात की टूर डायरी क्लोज होती हैं,
फिर कहीं कोई आवाज़ नहीं,
जंगल में हांका अब भी लगा है।
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