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सिकंदर का जनाजा

Kailash VajpeyiKailash Vajpeyi
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कितना अजीब हो गया है
अपने ही घर मेम शरीर खो गया है
न कहीम कोई दु:ख ,न दुराव
उजली सरलता है
बुद्ध की प्रतिमा पर
एक बिन बाती का दिया जलता है.

भीतर से बाहर तक आकाश फैला
ख़ुशबू की तितलियाँ
उड़ती हैं
लय टूटती है कभी-कभार
पीली ख़बरों की पत्तियाँ
जब झरती हैं.
होने को कुछ नहीं रहा
न खोने को
लगता नहीं कोई इतिहास था
जिससे बिंध जाने के बाद
सब काँटे सीधे हो गए.
वह क्या यही-सा
निर्वैर,निर्भव अहसास था ?
आख़िर कोई नींव क्यों रखता है
जानकर
यह धंधा अंधा है
सरिहन फँसता है बनने देता है सपने को
कोयल से क्यों नहीं सीखता सही
सुरक्षा ग़लत है बुनियादी तौर पर
संकट, मगर
ग़लत का सही पता
सिर्फ़ तब चलता है
जब दूसरे पहर
सिकन्दर का जनाज़ा निकलता है

 

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