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संवाद

Jagdish GuptJagdish Gupt
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लेखनी विश्राम करती रही
रोग-निरोग का क्रम तो
चलता ही रहता है
पर लेखनी क्यों थक गई ?

अब मैं मन-ही-मन
लेखनी सम्वाद करने लगा हूँ
बहुत कुछ ऐसा है
लेखनी भी नहीं कह पाती
और वह रेखाओं में उभर आता है
पर इधर रेखाएँ चुप रहीं ।

अन्तर्लीनता के क्षण
बहुत कठिनाई तुल्य हो गए
ये भी संयोग से ही मिलते हैं ।

अब इस संयोग का
सुख लूँ तो बुरा क्या होगा
अब तो लेखनी भी चुप है
उसकी ओर से अब
मुझे ही बोलना है ।

(जगदीश गुप्त की अन्तिम कविता)

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