
ये जिस्म ज़ार है यूँ पैरहन के पर्दे में
कि जैसे रूह निहाँ है बदन के पर्दे में
सिवाए अहल-ए-सुख़न हो मुशाहिदा किस को
निहाँ है शाहिद-ए-मा'नी सुख़न के पर्दे में
तलाश जिस की है दिन-रात तुझ को ऐ ग़ाफ़िल
छुपा हुआ है वो तेरे ही तन के पर्दे में
जो अंदलीब की आँखों से देखे वो समझे
ज़ुहूर है उसी गुल का चमन के पर्दे में
शब-ए-सियाह जुदाई में रौशनी हो कहीं
लगाऊँ आग मैं बैत-उल-हुज़न के पर्दे में
तरीक़-ए-इश्क़ छुड़ाया है तू ने ग़ारत-गर
मिला है ख़िज़्र मुझे राहज़न के पर्दे में
लताफ़त ऐसी है तुझ में कि देखता हूँ साफ़
गुहर से दाँत हैं दुर्ज-ए-दहन के पर्दे में
ब-रंग-ए-ज़र कोई कपड़ों में आग रहती है
न मेरे दाग़ छुपेंगे कफ़न के पर्दे में
नक़ाब से तिरे अबरू जो सल्ख़ को खुल जाएँ
तू माह-ए-नूर है चर्ख़-ए-कुहन के पर्दे में
अगर तुम आए थे शीरीं के भेस में साहब
तो साथ बंदा भी था कोहकन के पर्दे में
नुमूद हो न तिरे ख़त्त-ए-अम्बर-ए-अफ़्शाँ की
रहे वो जिल्द एज़ार-ओ-ज़क़न के पर्दे में
चमन में लाई सबा किस की बू जो आज शमीम
दमक रही है गुल-ए-यासमन के पर्दे में
नज़र से था शरर-ए-संग की तरह जो निहाँ
वो बुत मिला मुझे इक बुत-शिकन के पर्दे में
तुम्हारे रू-ए-मुख़त्तत का मुँह चिढ़ाते हैं
ये मेहर-ओ-माह परी-रू गहन के पर्दे में
हज़ारों पड़ गए तीर-ए-निगाह से सूराख़
हमारे इस बुत-ए-नावक-फ़गन के पर्दे में
ख़बर न शाम-ए-ग़रीबी की मुझ को थी 'नासिख़'
छुपी हुई थी ये सुब्ह-ए-वतन के पर्दे में
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