मुझ को फ़ुर्क़त की असीरी से रिहाई होती
काश ईसा के एवज़ मौत ही आई होती
आशिक़ी में जो मज़ा है तो यही फ़ुर्क़त है
लुत्फ़ क्या था जो अगर उस से जुदाई होती
गर न हो शम्अ' तो मा'दूम हैं परवाने भी
तू न होता तो सनम कब ये ख़ुदाई होती
ग़ैर से करते हो अबरू के इशारे हर दम
कभी तलवार तो मुझ पर भी लगाई होती
उस की हर दम की नसीहत से मैं तंग आया हूँ
काश नासेह से भी आँख उस ने लड़ाई होती
हूँ वो ग़म-दोस्त कि सब अपने ही दिल में भरता
ग़म-ए-आलम की अगर इस में समाई होती
ख़त के आग़ाज़ में तो मुझ से हुआ साफ़ तू कब
लुत्फ़ तब था कि सफ़ाई में सफ़ाई होती
अब्र-ए-रहमत से तो महरूम रही किश्त मिरी
कोई बिजली ही फ़लक तू ने गिराई होती
दश्त-ए-पुर-ख़ार में मेहंदी की हवस भी निकली
कब हमारी कफ़-ए-पा वर्ना हिनाई होती
धोई क्यूँ अश्क के तूफ़ान से लौह-ए-महफ़ूज़
सर-नविश्त अपनी ही 'नासिख़' ने मिटाई होती
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