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मज़ा विसाल का क्या गर फ़िराक़-ए-यार न हो

IMAM BAKHSH NASIKHIMAM BAKHSH NASIKH
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मज़ा विसाल का क्या गर फ़िराक़-ए-यार न हो

नहीं है नशे की कुछ क़द्र अगर ख़ुमार न हो

न रोए ता कोई आशिक़ ये हुक्म है उस का

कि शम्अ' भी मिरी महफ़िल में अश्क-बार न हो

जो हिचकी आई तो ख़ुश मैं हुआ कि मौत आई

किसी को यार का इतना भी इंतिज़ार न हो

ज़क़न है सेब तो उन्नाब है लब-ए-शीरीं

नहीं है सर्व वो ख़ुश-क़द जो मेवा-दार न हो

वो हूँ मैं मोरिद-ए-नफ़रत कि दरकिनार है यार

पए फ़िशार कभी गोर हम-कनार न हो

न आए कुंज-ए-लहद में भी मुझ को ख़्वाब-ए-अदम

अगर सिरहाने कोई ख़िश्त-ए-कू-ए-यार न हो

ब-रंग-ए-हुस्न-ए-बुताँ है दिल-ए-शगुफ़्ता मिरा

जो इस चमन में ख़िज़ाँ हो तो फिर बहार न हो

गई है कैसी ज़माने से रस्म-ए-सर-गर्मी

अजब नहीं है जो पत्थर में भी शरार न हो

न हँसने से कभी हमराज़ पोश वाक़िफ़ हों

ब-रंग-ए-ग़ुंचा जिगर जब तलक फ़िगार न हो

तिरी मिज़ा की जो तश्बीह उस से तर्क करें

किसी के तीर से कोई कभी फ़िगार न हो

दम-ए-अख़ीर तो कर लें नज़ारा जी भर के

इलाही ख़ंजर-ए-सफ़्फ़ाक आब-दार न हो

यही है क़ुल्ज़ुम-ए-ग़म में मिरी दुआ यारब

क़याम इस में कोई भी हबाब-दार न हो

वो सुब्ह सीना-ए-सद-चाक में है दाग़-ए-जुनूँ

कि जिस से दीदा-ए-ख़ुर्शेद भी दो-चार न हो

हवस उरूज की ले जाएँ गर ये दुनिया से

कभी बुलंद हवा से कोई ग़ुबार न हो

कमाल-ए-सूरत-ए-बे-दर्द से तनफ़्फ़ुर है

न देखें हम कभी उस गुल को जिस में ख़ार न हो

हज़ारों गोर की रातें हैं काटनी 'नासिख़'

अभी तो रोज़-ए-सियह में तू बे-क़रार न हो

 

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