
अपने अबरू आइने में देख कर बिस्मिल हुआ
खींच कर तलवार अपना आप वो क़ातिल हुआ
भाग कर कब तुझ से जाँ-बर कोई ऐ क़ातिल हुआ
उड़ चला गर होश अपना ताइर-ए-बिस्मिल हुआ
अब कहाँ नाले कि उस लैला का मस्कन दिल हुआ
था जरस जो पेश-ए-अज़ीं वो इन दिनों महमिल हुआ
नाम-ए-नेक अहल-ए-हुकूमत को कहाँ हासिल हुआ
ख़ल्क़ में मशहूर इक नौ-शेरवाँ आदिल हुआ
सर से पा तक हर सनोबर ही फ़क़त क्या दिल हुआ
देख कर उस सर्व-क़द को सर्व भी माइल हुआ
इस अदा से बाढ़ देखी आप ने तलवार की
ताइर-ए-रंग-ए-हिना भी ताइर-ए-बिस्मिल हुआ
ध्यान उस के बंद करने का अगर आता तुझे
क्यूँ न तेरा रख़ना-ए-दर मेरा चाक-ए-दिल हुआ
है ये ग़म जाँ-काह ख़ाल-ए-अबरू-ए-ख़मदार का
का'बे में काहीदा हो कर संग-ए-असवद दिल हुआ
जो यहाँ मग़्लूब है उक़्बा में ग़ालिब है वही
मरकब-ए-मक़्तूल है इक रोज़ जो क़ातिल हुआ
धोए हैं धोबी ने दरिया में जो कपड़े यार के
आज कोसों तक मोअ'त्तर दामन-ए-साहिल हुआ
दिलबरी का जब हुआ उस सर्व-क़ामत को ख़याल
उज़्व उज़्व अपना वहीं मिस्ल-ए-सनोबर दिल हुआ
सब के ख़ालिक़ ने बनाए कासा-ए-सर वाज़गूँ
आदमी इस पर भी पेश-ए-आदमी साइल हुआ
बुझ गया मेरा चराग़-ए-दाग़ वस्ल-ए-यार में
नूर-ए-मह नज़दीकी-ए-ख़ुर्शेद से ज़ाइल हुआ
जो परी-रू बैठता है आ के उठ सकता नहीं
अब तो नक़्श-ए-बोरिया का ख़ूब मैं आमिल हुआ
जज़्ब-ए-जिंसिय्यत बहम रहने नहीं देता फ़िराक़
कल बना जो जिस्म-ए-ख़ाकी आज गिल-दर-गिल हुआ
हाए किस क़ातिल-अदा से की शुरूअ' उस ने नमाज़
निकली जब तकबीर उस के मुँह से मैं बिस्मिल हुआ
कहते हैं ज़ाहिद मिरी दीवानगी को देख कर
बुत-परस्ती के सबब क़हर-ए-ख़ुदा नाज़िल हुआ
जब तसव्वुर यार का बाँधा हम आप आए नज़र
सामने आँखों के आईना हमारा दिल हुआ
आशिक़-ए-बे-नंग से होता है माशूक़ों को नंग
पैरहन मजनूँ का फट कर पर्दा-ए-महमिल हुआ
सामने मेरे रहा गर शाम से ले ता-सहर
हुस्न में गर मिस्ल-ए-माह-ए-चारदह कामिल हुआ
रूह-ए-'नासिख़' है उसी की रूह-ए-अक़्दस पर निसार
बारहा जिस के लिए रूहुल-क़ुदुस नाज़िल हुआ
No posts
No posts
No posts
No posts
Comments