
0 Bookmarks 64 Reads0 Likes
आँख़ की क़िस्मत है अब बहता समंदर देखना
और फ़िर इक डूबते सूरज का मंज़र देखना
शाम हो जाए तो दिन का ग़म मनाने के लिए
एक शोला सा मुनव्वर अपने अंदर देखना
रौशनी में अपनी शख़्सियत पे जब भी सोचना
अपने क़द को अपने साए से भी कम-तर देखना
संग-ए-मंज़िल इस्तिआरा संग-ए-मरक़द का न हो
अपने ज़िंदा जिस्म को पत्थर बना कर देखना
कैसी आहट है पस-ए-दीवार आख़िर कौन है
आँख बनता जा रहा है रौज़न-ए-दर देखना
ऐसा लगता है कि दीवारों में दर खुला जाएँगे
साया-ए-दीवार के ख़ामोश तेवर देखना
इक तरफ़ उड़ते अबाबील इक तरफ़ असहाब-ए-फील
अब के अपने काबा-ए-जाँ का मुक़द्दर देखना
सफ़्हा-ए-क़िरतास है या जंग-ख़ुदा आईना
लिख रहे हैं आज क्या अपने सुख़न-वर देखना
No posts
No posts
No posts
No posts
Comments