लो उतर गयी हलदी के रँग की साँझ एक's image
2 min read

लो उतर गयी हलदी के रँग की साँझ एक

Gulab KhandelwalGulab Khandelwal
0 Bookmarks 82 Reads0 Likes

लो उतर गयी हलदी के रँग की साँझ एक
लो फूल जवा का एक और झर गया आज
मैं फटी-फटी आँखों से बेसुध देख रहा
यौवन का सपना एक और मर गया आज
. . .

यह तट था जिसपर मोती चुगते हंसों का
अविराम लगा ही रहता था जमघट जैसे
अब धू-धू करती धूल चिता की उड़ती है
वह छवि का पनघट आज बना मरघट जैसे

सब संगी साथी एक-एक कर छूट रहे
मुझको भी अब कोई उस पार बुलाता है
मैं बाँध रहा जीवन को कस-कसकर लेकिन
बंधन प्रतिपल ढीला होता ही जाता है

वे कहाँ गए जो इन भवनों में रहते थे
अब भी जिनके पदचाप सुनायी पड़ते हैं?
हो चुका सभा का अंत, गए गानेवाले
फिर भी मुझको आलाप सुनायी पड़ते हैं
. . .

फिर भी मेरा हृतपिण्ड धड़कता है अब तक
वे कहाँ गए जो लिए हाथ में हाथ रहे!
प्रतिध्वनियाँ आतीं लौट, कहीं कोई न यहाँ
संगी-साथी सब घड़ी, पहर, दिन साथ रहे

घाटियाँ अधिक सँकरी ही होती जाती हैं
जो दौड़ रहे थे रेंग-रेंग कर चलते हैं
अब ठोस अँधेरे में बढ़ रहे चरण मेरे
मुझको अपने ही प्राण अपरिचित लगते हैं

No posts

Comments

No posts

No posts

No posts

No posts