
0 Bookmarks 102 Reads0 Likes
जब भी इस शहर में कमरे से मैं बाहर निकला
मेरे स्वागत को हर इक जेब से ख़ंजर निकला
मेरे होंटों पे दुआ उस की ज़बाँ पे गाली
जिस के अंदर जो छुपा था वही बाहर निकला
ज़िंदगी भर मैं जिसे देख कर इतराता रहा
मेरा सब रूप वो मिट्टी का धरोहर निकला
रूखी रोटी भी सदा बाँट के जिस ने खाई
वो भिकारी तो शहंशाहों से बढ़ कर निकला
क्या अजब है यही इंसान का दिल भी 'नीरज'
मोम निकला ये कभी तो कभी पत्थर निकला
No posts
No posts
No posts
No posts
Comments