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थकी दुपहरी में पीपल पर

Girija Kumar MathurGirija Kumar Mathur
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थकी दुपहरी में पीपल पर
थकी दुपहरी में पीपल पर
काग बोलता शून्य स्वरों में,
फूल आखिरी ये वसन्त के
गिरे ग्रीष्म के उष्म करों में

धीवर का सूना स्वर उठता
तपी रेत के दूर तटों पर
हल्की गरम हवा रेतीली
झुक चलती सूने पेड़ों पर ।
अब अशोक के भी थाले में
ढेर-ढेर पत्ते उड़ते हैं,
ठिठका नभ डूबा है रज में
धूल भरी नंगी सड़कों पर ।

वन-खेतों पर है सूनापन
खालीपन नि:शब्द घरों में,
थकी दुपहरी में पीपल पर
काग बोलता शून्य स्वरों में ।

यह जीवन का एकाकीपन
गरमी के सुनसान दिनों सा,
अन्तहीन दोपहरी डूबा
मन निश्चल हैं शुष्क वनों-सा
ठहर गई हैं चीलें नभ में
ठहर गई है धूप-छांह भी
शून्य तीसरा पहर पास है
जलते हुए बन्द नयनों सा

कौन दूर से चलता आता,
इन गरमीले म्लान पथों में,
थकी दुपहरी में पीपल पर
काग बोलता शून्य स्वरों में ।

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