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क्वाँर की दुपहरी

Girija Kumar MathurGirija Kumar Mathur
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क्वाँर की दुपहरी
क्वाँर की सूनी दुपहरी,
श्वेत गरमीले, रुएं-से बादलों में,
तेज़ सूरज निकलता, फिर डूब जाता ।
घरों में सूनसान आलस ऊँघता है,
थकी राहें ठहर कर विश्राम करतीं;
दूर सूनी गली के उस छोर पर से
नीम-नीचे खेलते कुछ बालकों की
मिली-सी आवाज़ आती

रिक्त कमरे की उदासी बढ़ रही है,
दूर के आते स्वरों से ।
दूर होता जा रहा हूँ मैं स्वयं ही-
पास की दीवाल पर के चित्र सारे,
शून्य द्वारों पर पड़े रंगीन पर्दे,
वायु की साँसों-भरी, एकान्त खिड़की,
वह अकेली-सी घड़ी,
वह दीप ठण्डा
और रातों-जगा वह सूना पलंग भी
दूर होता जा रहा है दूर कितना ।
लग सका है कुछ न अपना
ज़िन्दगी-भर दूर ही रहना पड़ा है,
प्यार के सारे जगत् से।

थक रही है क्वाँर की सूनी दुपहरी,
श्वेत हल्के बादलों में सूर्य डूबा
नीम-नीचे बालकों का स्वर मिला-सा छा रहा है
धूल पैरों से हवा में उड़ रही है ।
बालकों-सा खेलता मैं ज़िन्दगी में
किन्तु साथी दूर पर बिछुड़ा हमारा !

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