
जलते प्रश्न
जगमग होते कलश-कंगूरे
रंगों की झरती बरसात
चमक चंदोवे कंगने पहिने
खुश है राजनगर की रात
खुश हैं हम भी-
पर फिर दिखते
वे उदास चेहरे गुमनाम
दूर टिमटिमाते गाँवों के
उठ आते हैं दर्द तमाम
खुश हैं हम-
है झुका न माथा
अग्नि-परीक्षा में हर बार
बिना तेज़ सामाजिक गति के
नहीं मिटेगा हाहाकार
बड़ी चुनौती खड़ी सामने
नहीं राह पर बिछे गुलाब
नई शक्ति देकर अब जनता
मांग रही है नए जवाब
सोच रहा हूँ-
क्या आज़ादी है मेले-ठेले का नाम
सिर्फ तमाशा है परेड का?
सजी झांकियों का अभिराम
आज़ादी का अर्थ, न कुर्सी
बंगला, अमला या धन धाम
रौब-दाब, भाषण, मालाएँ
परमिट, तमग़े और इनाम
यह न तस्करों की आज़ादी
दो नम्बर दुनिया बदनाम
जात-पांत की धक्का शाही
फूट, लूट, हत्या, कुहराम
टक्कर खाते आम आदमी
हर काग़ज़ पर लिक्खा दाम
बिना-चढ़ावे के न सरकता
एक इंच भी पहिया जाम
क्यों है अब हर चीज बिकाऊ
शुद्ध न कोई कारोबार
यह मशीन चीकट काजल से
बड़ी सफाई है दरकार
माना बदला है काफ़ी कुछ
तेज़ नहीं लेकिन रफ़्तार
रक्षित जन हो, दुष्ट दमन हो
समय-शक्ति फिर रही पुकार
गूंज रहे मेरे शब्दों में
सब कुछ सहते कंठ अपार
मेरी कविता के दर्पन में
झाँक रहा असली संसार !
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