0 Bookmarks 226 Reads0 Likes
चिंता ज्वाल सरीर की, दाह लगे न बुझाय।
प्रकट धुआं नहिं देखिए, उर अंतर धुंधुवाय॥
उर अंतर धुंधुवाय, जरै जस कांच की भट्ठी।
रक्त मांस जरि जाय, रहै पांजरि की ठट्ठी॥
कह 'गिरिधर कविराय, सुनो रे मेरे मिंता।
ते नर कैसे जियै, जाहि व्यापी है चिंता॥
No posts
No posts
No posts
No posts
Comments