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वफ़ा-दारी ग़नीमत हो गई क्या
मोहब्बत भी मुरव्वत हो गई क्या
अदालत फ़र्श-ए-मक़्तल धो रही है
उसूलों की शहादत हो गई क्या
ज़रा ईमान-दारी से बताओ
हमें तुम से मोहब्बत हो गई क्या
फ़रिश्तों जैसी सूरत क्यूँ बना ली
कोई हम से शरारत हो गई क्या
किताबत रोकने का क्या सबब है
कहानी की इशाअत हो गई क्या
मज़ार-ए-पीर से आवाज़ आई
फ़क़ीरी बादशाहत हो गई क्या
घटाएँ पूछने को आ रही हैं
हमारी छत की हालत हो गई क्या
ये कैसा जश्न है उस की गली में
कोई बंदिश इजाज़त हो गई क्या
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