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ये बुत फिर अब के बहुत सर उठा के बैठे हैं
ख़ुदा के बंदों को अपना बना के बैठे हैं
हमारे सामने जब भी वो आ के बैठे हैं
तो मुस्कुरा के निगाहें चुरा के बैठे हैं
कलेजा हो गया ज़ख़्मी फ़िराक़-ए-जानाँ में
हज़ारों तीर-ए-सितम दिल पे खा के बैठे हैं
तुम एक बार तो रुख़ से नक़ाब सरका दो
हज़ारों तालिब-ए-दीदार आ के बैठे हैं
उभर जो आती है हर बार मौसम-ए-गुल में
इक ऐसी चोट कलेजे में खा के बैठे हैं
ये बुत-कदा है इधर आइए ज़रा 'बिस्मिल'
बुतों की याद में बंदे ख़ुदा के बैठे हैं
पसंद आएगी अब किस की शक्ल 'बिस्मिल' को
नज़र में आप जो उस की समा के बैठे हैं
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