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सत्रह बरस का प्रतियोगी परीक्षार्थी

AnamikaAnamika
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दूध जब उतरता है पहले-पहले, बेटा,
छातियों में माँ की
झुरझुरी जगती है पूरे बदन में !
उस दूध का स्वाद अच्छा नहीं होता,
पर डॉक्टर कहते हैं उसको चुभलाकर पी जाए बच्चा
तो सात प्रकोपों में भी जी जाए बच्चा !
उस दूध की तरह होता है, बेटे
पहली विफलता का स्वाद !

भग्नमनोरथ भी तो रथ ही है
भागीरथी जानते थे, जानता था कर्ण,
जानते थे राजा ब्रूस मकड़जाले वाले
और तुम भी जान जाओगे
कुछ होने से कुछ नहीं होता,
कुछ खोने से कुछ नहीं खोता !
पूर्णविराम कल्पना है,
निष्काम होने की कामना
भी आखिर तो कामना है !

सिलसिले टूटते नहीं, रास्ते छूटते नहीं ।
पाँव से लिपटकर रह जाते हैं एक लतर की तरह
जूते उतारो घर आकर तो मोजे में तिनके मिलेंगे लतर के !
तुम्हें एक अजब तरह की दुनिया
दी है विरासत में
हो सके तो माफ कर देना !

फूल के चटकने की आवाज़ यहाँ किसी को भी
सुनाई नहीं देती,
कोई नहीं देखता कैसे श्रम, कैसे कौशल से
एक-एक पँखुड़ी खुली थी !

यह फल की मण्डी है, बेटा,
सफल-विफल लोग खड़े हैं क्यारियों में !
चाहती थी तुम्हें मिलती ऐसी दुनिया
जहाँ क्यारियों में अँटा-बँटा, फटा-चिटा
मिलता नहीं यों किसी का वजूद !

हर फूल अपनी तरह से सुन्दर है
प्रतियोगिता के परे जाती है
हरेक सुन्दरता !

और ‘भगवद्‍गीता’ का वह फल ?
वह तो भतृहरि के आम की तरह
राजा से रानी, रानी से मन्त्री,
मन्त्री से गणिका, गणिका से फिर राजा के पास
टहलता हुआ आ तो जाएगा
रोम-रोम की आँखें खोलता हुआ !
पसिनाई पीठ पर तुम्हारी
चकत्ते पड़े हैं
खटिया की रस्सियों के !
ऐसे ही पड़ते हैं शादी में
हल्दी के छापे,
पर शादी की सुनकर भड़कोगे तुम !

कल रात बिजली नहीं थी ।
मोमबत्ती की भी डूब गई लौ
तो किताब बन्द की तुमने
और अन्धेरे में
चीज़ों से टकराते
हड़बड़-दड़बड़ आकर बोले —
‘माँ, भूख लगी है !’

इस सनातन वाक्य में
एक स्प्रिंग है लगा,
कितनी भी हो आलसी माँ,
वह उठ बैठती है
और फिर कनस्तर खड़कते हैं
जैसे खड़कती है सुपली
दीवाली की रात
जब गाती हैं घर की औरतें
हर कमरे में सुपली खड़कातीं
‘लक्ष्मी पइसे, दरिद्दर भागे, दरिद्दर भागे, दरिद्दर भागे !’
दारिद्रय नहीं भागता, भाग जाती है नीन्द मगर ।
तरह-तरह के अपडर
निश्शँक फ़र्श पर टहलते मिल जाते हैं,
कैटवाक पर निकला मिलता है भूरा छुछून्दर !

छुछून्दर के सिर में चमेली का तेल
या भैंस के आगे बजती हुई बीन
या दुनिया की सारी चीज़ें बेतालमेल
ब्रह्ममुहर्त के कुछ देर पहले की झपकी के
एक दुःस्वप्न में टहल आती है,
और भला हो ईंटो की लॉरी का
कि उसकी हड़हड़-गड़गड़ से
दुःस्वप्न जाता है टूट,
खुल जाती हैं आँखें,
कहता है बेटा —
‘माँ, ये दुख क्यों होता है,
इसका करें क्या ?’
सूखी हुई छातियाँ मेरी
दूध से नहीं, लेकिन उसके पसीने से तर हैं !
मैं महामाया नहीं हूँ, ये बुद्ध नहीं है,
लेकिन यह प्रश्न तो है ही जहाँ का तहाँ, जस का तस !

एक पुरानी लोरी में
स्पैनिश की टेक थी
‘के सेरा-सेरा... वाटेवर विल बी, विल बी...
ये मत पूछो — कल क्या होगा, जो भी होगा, अच्छा होगा !’

मैं बेसुरा गाती हूँ, वह हंसने लगता है
‘बस, ममा, बस आगे याद है मुझे !’
रात के तीसरे पहर की ये मुक्त हंसी
झड़ रही है पत्तों पर
ओस की तरह !
आगे की चिन्ता से परेशान उसके पिता
नीन्द में ही मुस्का देते हैं धीरे से !
उत्सव है उनका ये मुस्काना
सुपरसीरियस घर में !

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