
0 Bookmarks 87 Reads0 Likes
एक लोरी गीत: गर्भस्थ शिशु के लिए
एक महास्वप्न की तरह, मेरे चांद,
तू जागता है सारी रात,
भीतर के पानियों में
मारता केहुनी।
बतिया खीरे-जैसे
लोचदार पांवों से,
साइकिल चलाता हुआ
जाना कहां चाहता है?
क्या मेरी बांहों में आने की जल्दी है?
ये तेरी अम्मा तो पहले ही चल दी है-
पगलाई-सी तेरी ओर!
अपने से अपने तक की यात्रा बेटे,
होती है कैसी अछोर, जानता है न?
आ इस महाजागरण के समंदर में
निंदिया का एक द्वीप रच दूं मैं
तेरे लिए,
इंद्रधनुष का टांग दूं मैं चंदोवा।
धूप में झमकती हुई बूंदें
रचती चलें बंदनवार,
जोगी हरदम ही रहे तेरे द्वार
और लोकमंगल के झिलमिल स्पंदन सब
भरे रहें तेरा घर-बार!
No posts
No posts
No posts
No posts
Comments