
सभागार की
ये पुरानी दरी
गालिब के
किसी शेर के साथ
बुनी गई होगी -
कम से कम
दो शताब्दी पहले।
’दर‘ का ’दर्द‘ से
होगा जरूर
कोई तो रिश्ता
’दायम पडा हुआ
तेरे दर पर
नहीं हूँ मैं -
कह नहीं सकती
बेचारी दरी।
जूते-चप्पल झेलकर भी
हरदम सजदे में बिछी
धूल फाँकती सदियों की
मसक गई है ये जरा-सी
जब कभी खिंच जाती है
सभा लम्बी
राकस की टीक की तरह
धीरे से भरती है
शिष्ट दरी
नन्हीं-मुन्नी एक
अचकचाती-सी
उबासी
पुराने अदब का
इतना लिहाज है उसे,
खाँसती भी है तो धीरे से!
किरकिराती जीभ से रखती है
होंठ ये
लगातार तर
किसी पुराने चश्मे के काँच-सी-धुँधली,
किसी गंदुमी शाम-सी धूसर
सभागार की ये पुरानी दरी
बुनी गई होगी
गालिब के किसी शेर की तरह
कम-से-कम
दो शताब्दी पहले।
नई-नई माँओं को
जब पढने होते हैं
सेमिनार में पर्चे
पीली सी साटन की फालिया पर
छोड जाती हैं वे बच्चे
सभागार की इस
दरी दादी के भरोसे।
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