
सारा का पहला खत जो मुझे मिला,१९८० में उस पर १६ सितम्बर की तारीख थी. लिखा था--
अमृता बाजी ! मेरे तमाम सूरज आपके.
मेरे परिंदों की शाम चुरा ली गई है.आज दुःख भी रूठ गया है.
कहते हैं--फैसले कभी-कभी फ़ासलों के सुपुर्द मत करना!
मैंने तो फ़ासला आज तक नहीं देखा ...
यह कैसी आवाज़ें हैं! जैसे रात जले कपड़ों में घूम रही हैं...
जैसे कब्र पर कोई आंखे रख गया हो!
मैं दीवार के क़रीब मीलों चली और इंसानों से आज़ाद हो गई...
मेरा नाम कोई नहीं जनता...दुश्मन इतने वसीह क्यूँ हो गए!
मैं औरत--अपने चांद में आसमान का पैबंद क्युं लगाउं!
मील पत्थर ने किसका इंतज़ार किया!
औरत रात में रच गई है अमृता बाजी!
आखिर खुदा अपने मन में क्युं नहीं रहता!
आग पूरे बदन को छू गई है
संगे मील,मीलों चलता है और साकत है...
मैं अपनी आग में एक चांद रखती हूं
और नंगी आंखो से मर्द कमाती हूं
लेकिन मेरी रात मुझसे पहले जाग गई है
मैं आसमान बेचकर चांद नहीं कमाती... .............. खत हाथ में पकड़ा रह गया...खत उर्दू में था,और मैं आसानी से पढ़ नहीं पा रही थी,इसलिए इमरोज़ की मदद से पढ़ रही थी...मैंने खत पर हाथ रख दिया,इमरोज़ से कहा--ठहरो,और नहीं...
और वह लड़की--जो ख रही थी 'मैं आसमान बेचकर चांद नहीं कमाती'--मेरी रगों में उतरने लगी थी--
लगा--आसमान-फ़रोशों की इस दुनिया में यह सारा नाम की लड़की कहाँ से आ गई?आ गई है तो इस दुनिया में कैसे जीएगी?चाह इसे दिल में छुपा लूँ...
इमरोज ने आहिस्ता से मेरे हाथ को सरका दिया,और खत पढ़ने लगे--
"क़दम-क़दम पर घूंघट कि फरमाइश है,लेकिन मेरे नज़दीक शर्म एक अंधेरा है..."
याद आया--सारा की नज़्म में ठीक इसी अंधेरे की तफसील है,"शर्म क्या होती है औरत!शर्म मरी हुई गैरत होती है."
इमरोज़ खत पढ़ रहे थे --
"जिस्म के अलावा मैं शे'र भी कहती हूं.शहवत में मरे हुए लोग मुझे दाद देते हैं,तो मेरे गुनाह जल उठते हैं.
धूप में आग लगी,कपड़े कहाँ सुखाउं! चिंगारियों के मुकद्दर में आग जरूर लगती है...
अमृता बाजी !दिल बहुत उदास है,सो आपसे बातें कर लीं.आजकल मेरे पास दीवारें हैं,और वक्त है.हमने तो आपकी मुहब्बत में किनारे गंवा दी,और समुन्दर की हामी भर ली...
मौसम की क़ैद में लिबास क्युं रहे! मैं तो सदियों की माँ हूं.मेरी रात में दाग़ सिर्फ चांद का है...
आंखे मुझे क्युं नापती हैं? क्या इंसान के जिस्म में सारे राज़ रह गए ?
दुआ ज़हर हो जाए तो खुदावंद के यहाँ बेटा होता है, और मेरे दुःख पर खुदावंद ने कहा कि मैं तन्हा हूं!
मिट्टी बोली लगाती है मौसम की. सच है कायनात के खातमे पर जो चीज़ रह जाएगी वह सिर्फ वक्त होगा.
मैं अपने रब का ख्याल हूं,और मरी हुई हूं.."
मैंने तड़प कर खत को एक तरफ़ रख दिया. और जिस तरह तड़पकर कभी अपने को कहा करती हूं--"आओ अमृता! मेरे पास आओ!" --उसी तरह कहा--"आओ सारा!मेरे पास आओ!"
उस वक्त सारा की एक नज़्म कागज़ से उतर कर मेरे ज़िहन में सुलगने लगी--
अभी औरत ने सिर्फ रोना ही सीखा है
अभी पेड़ों ने फूलों की मक्कारी ही सीखी है
अभी किनारों ने सिर्फ समुन्दर को लूटना ही सीखा है
औरत अपने आंसुओ से वुजू कर लेती है
मेरे लफ्ज़ों ने कभी वुजू नहीं किया
और रात खुदा ने मुझे सलाम किया...
और उस वक्त मेरे मुंह से निकला--देखो सारा! आज खुदा से मिलकर मैं तुम्हें सलाम करती हूं!
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