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सौ ज़ुल्मतें है इश्क़-ए-परेशाँ लिए हुए
आ जाओ मशअ'ल-ए-रुख़-ए-ताबाँ लिए हुए
हर मौज बे-ख़राश थी दरिया-ए-हुस्न की
आना पड़ा तलातुम-ए-अरमाँ लिए हुए
दस्त-ए-जुनूँ को छेड़ न ग़ैरत-दह-ए-बहार
दामन से जा मिले न गरेबाँ लिए हुए
बढ़ जाए और अर्सा-ए-महशर ज़रूरतन
आया हूँ साथ कसरत-ए-इस्याँ लिए हुए
इक सरमदी हयात गले मिल के दी गई
थी तेग़-ए-नाज़ चश्मा-ए-हैवाँ लिए हुए
देते रहे वो हुस्न को दर्स-ए-जमाल-ए-तूर
बैठा रहा मैं दीदा-ए-हैराँ लिए हुए
आता है कौन हश्र में ये झूमता हुआ
सज्दों के साथ कूचा-ए-जानाँ लिए हुए
तू अपने तीर-ए-नाज़ का मुझ से न ज़िक्र कर
दिल उड़ न जाए आलम-ए-इम्काँ लिए हुए
छाया है 'अब्र' मोहर-ए-क़यामत पे बन के अब्र
वो अश्क था जो दीदा-ए-गिर्यां लिए हुए
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