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आ रही है ये तूर से आवाज़
आए वो जिस को ताब-ए-दीद पे नाज़
ये तड़प और ये आह रूह-ए-गुदाज़
हाए हैं अपना ख़ुद नहीं हमराज़
है वहीं इब्तिदा-ए-सरहद-ए-नाज़
हो जहाँ ख़त्म अक़्ल की परवाज़
वो मुक़र्रर तो दर करें अपना
ढूँड लेगी मिरी जबीन-ए-नियाज़
एक मिज़राब-ए-ग़म में टूट गया
कितना नाज़ुक था ज़िंदगी का साज़
पर्दा-ए-ज़ीस्त उठा रहा हूँ मैं
अब तो उठ पर्दा-ए-हरीम-ए-नाज़
उन की नीची नज़र का ओछा तीर
दिल में है मिस्ल-ए-उम्र-ए-ख़िज़्र दराज़
वक़्त-ए-आख़िर नफ़स में पाता हूँ
तेरी रफ़्तार-ए-नाज़ के अंदाज़
कैसा गिर्यां है कैसा नादिम है
मेरी मय्यत पे मेरा दुनिया-साज़
हर ज़मीं सैर-गाह थी अपनी
हाए वो 'अब्र' क़ुव्वत-ए-पर्वाज़
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