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Category: Mahatma Gandhi


गाँधी' हो या 'ग़ालिब' हो | साहिर लुधियानवी

'गाँधी' हो या 'ग़ालिब' हो 

ख़त्म हुआ दोनों का जश्न 

आओ उन्हें अब कर दें दफ़्न 

ख़त्म करो तहज़ीब की बात 

बंद करो कल्चर का शोर 

सत्य अहिंसा सब बकवास 

हम भी क़ातिल तुम भी चोर 

ख़त्म हुआ दोनों का जश्न 

आओ उन्हें अब कर दें दफ़्न 

वो बस्ती वो गाँव ही क्या 

जिस में हरीजन हो आज़ाद 

वो क़स्बा वो शहर ही क्या 

जो न बने अहमदाबाद 

ख़त्म हुआ दोनों का जश्न 

आओ उन्हें अब कर दें दफ़्न 

'गाँधी' हो या 'ग़ालिब' हो 

दोनों का क्या काम यहाँ 

अब के बरस भी क़त्ल हुई 

एक की शिकस्ता इक की ज़बाँ 

ख़त्म हुआ दोनों का जश्न 

आओ उन्हें अब कर दें दफ़्न 

सानेहा | असरार-उल-हक़ मजाज़

दर्द-ओ-ग़म-ए-हयात का दरमाँ चला गया 

वो ख़िज़्र-ए-अस्र-ओ-ईसा-ए-दौराँ चला गया 

हिन्दू चला गया न मुसलमाँ चला गया 

इंसाँ की जुस्तुजू में इक इंसाँ चला गया 

रक़्साँ चला गया न ग़ज़ल-ख़्वाँ चला गया 

सोज़-ओ-गुदाज़ ओ दर्द में ग़लताँ चला गया 

बरहम है ज़ुल्फ़-ए-कुफ़्र तो ईमाँ सर-निगूँ 

वो फ़ख़्र-ए-कुफ्र ओ नाज़िश-ए-ईमाँ चला गया 

बीमार ज़िंदगी की करे कौन दिल-दही 

नब्बाज़ ओ चारासाज़-ए-मरीज़ाँ चला गया 

किस की नज़र पड़ेगी अब ''इस्याँ'' पे लुत्फ़ की 

वो महरम-ए-नज़ाकत-ए-इस्याँ चला गया 

वो राज़-दार-ए-महफ़िल-ए-याराँ नहीं रहा 

वो ग़म-गुसार-ए-बज़्म-ए-अरीफ़ाँ चला गया 

अब काफ़िरी में रस्म-ओ-राह-ए-दिलबरी नहीं 

ईमाँ की बात ये है कि ईमाँ चला गया 

इक बे-खु़द-ए-सुरूर-ए-दिल-ओ-जाँ नहीं रहा 

इक आशिक़-ए-सदाक़त-ए-पिन्हाँ चला गया 

बा-चश्म-ए-नम है आज ज़ुलेख़ा-ए-काएनात 

ज़िंदाँ-शिकन वो यूसुफ़-ए-ज़िंदाँ चला गया 

ऐ आरज़ू वो चश्मा-ए-हैवाँ न कर तलाश 

ज़ुल्मात से वो चश्मा-ए-हैवाँ चला गया 

अब संग-ओ-ख़िश्त ओ ख़ाक ओ ख़ज़फ़ सर-बुलंद हैं 

ताज-ए-वतन का लाल-ए-दरख़्शाँ चला गया 

अब अहरमन के हाथ में है तेग़-ए-ख़ूँ-चकाँ 

ख़ुश है कि दस्त-ओ-बाज़ू-ए-यज़्दाँ चला गया 

देव-ए-बदी से मार्का-ए-सख़्त ही सही 

ये तो नहीं कि ज़ोर-ए-जवानाँ चला गया 

क्या अहल-ए-दिल में जज़्बा-ए-ग़ैरत नहीं रहा 

क्या अज़्म-ए-सर-फ़रोशी-ए-मर्दां चला गया 

क्या बाग़ियों की आतिश-ए-दिल सर्द हो गई 

क्या सरकशों का जज़्बा-ए-पिनहां चला गया 

क्या वो जुनून-ओ-जज़्बा-ए-बेदार मर गया 

क्या वो शबाब-ए-हश्र-बदामाँ चला गया 

ख़ुश है बदी जो दाम ये नेकी पे डाल के 

रख देंगे हम बदी का कलेजा निकाल के 

'गाँधी-जी' की याद में! | जिगर मुरादाबादी

वही है शोर-ए-हाए-ओ-हू, वही हुजूम-ए-मर्द-ओ-ज़न 

मगर वो हुस्न-ए-ज़िंदगी, मगर वो जन्नत-ए-वतन 

वही ज़मीं, वहीं ज़माँ, वही मकीं, वही मकाँ 

मगर सुरूर-ए-यक-दिली, मगर नशात-ए-अंजुमन 

वही है शौक़-ए-नौ-ब-नौ, वही जमाल-ए-रंग-रंग 

मगर वो इस्मत-ए-नज़र, तहारत-ए-लब-ओ-दहन 

तरक़्क़ियों पे गरचे हैं, तमद्दुन-ओ-मुआशरत 

मगर वो हुस्न-ए-सादगी, वो सादगी का बाँकपन 

शराब-ए-नौ की मस्तियाँ, कि अल-हफ़ीज़-ओ-अल-अमाँ 

मगर वो इक लतीफ़ सा सुरूर-ए-बादा-ए-कुहन 

ये नग़्मा-ए-हयात है कि है अजल तराना-संज 

ये दौर-ए-काएनात है कि रक़्स में है अहरमन 

हज़ार-दर-हज़ार हैं अगरचे रहबरान-ए-मुल्क 

मगर वो पीर-ए-नौजवाँ, वो एक मर्द-ए-सफ़-शिकन 

वही महात्मा वही शहीद-ए-अम्न-ओ-आश्ती 

प्रेम जिस की ज़िंदगी, ख़ुलूस जिस का पैरहन 

वही सितारे हैं, मगर कहाँ वो माहताब-ए-हिन्द 

वही है अंजुमन, मगर कहाँ वो सद्र-ए-अंजुमन

आह गाँधी | नज़ीर बनारसी

तिरे मातम में शामिल हैं ज़मीन ओ आसमाँ वाले 

अहिंसा के पुजारी सोग में हैं दो जहाँ वाले 

तिरा अरमान पूरा होगा ऐ अम्न-ओ-अमाँ वाले 

तिरे झंडे के नीचे आएँगे सारे जहाँ वाले 

मिरे बूढ़े बहादुर इस बुढ़ापे में जवाँ-मर्दी 

निशाँ गोली के सीने पर हैं गोली के निशाँ वाले 

निशाँ हैं गोलियों के या खिले हैं फूल सीने पर 

उसी को मार डाला जिस ने सर ऊँचा किया सब का 

न क्यूँ ग़ैरत से सर नीचा करें हिन्दोस्ताँ वाले 

मिरे गाँधी ज़मीं वालों ने तेरी क़द्र जब कम की 

उठा कर ले गए तुझ को ज़मीं से आसमाँ वाले 

ज़मीं पर जिन का मातम है फ़लक पर धूम है उन की 

ज़रा सी देर में देखो कहाँ पहुँचे कहाँ वाले 

पहुँचता धूम से मंज़िल पे अपना कारवाँ अब तक 

अगर दुश्मन न होते कारवाँ के कारवाँ वाले 

सुनेगा ऐ 'नज़ीर' अब कौन मज़लूमों की फ़रियादें 

फ़ुग़ाँ ले कर कहाँ जाएँगे अब आह-ओ-फ़ुग़ाँ वाले 

राहबर देश-भगती का वो | अबरार किरतपुरी

राहबर देश-भगती का वो 

शाह था इक लंगोटी का वो 

प्यार के वो लुटाता था फूल 

था अहिंसा उसी का उसूल 

नर्मी से ज़िंदगी तंग की 

उस ने अंग्रेज़ों से जंग की 

हौसले हो गए उन के पस्त 

आन पहुँची जो पंद्रह अगस्त 

दिल हर इक शाद हो ही गया 

देश आज़ाद हो ही गया 

दोस्ती का सबक़ दे गया 

मर के जावेद वो हो गया 

फिर करें याद उस के उसूल 

और चढ़ाएँ अक़ीदत के फूल 

गाँधी जी | सय्यदा फ़रहत

सच्ची बात हमेशा कहना 

सच्चाई के रस्ते चलना 

बापू ने समझाया है 

बापू ने समझाया है 

एक ख़ुदा ने सब को बनाया 

उस का सब के सर पर साया 

बापू ने समझाया है 

बापू ने समझाया है 

भारत माँ है माता सब की 

धरती माँ अन-दाता सब की 

बापू ने समझाया है 

बापू ने समझाया है 

हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई 

आपस में हैं भाई भाई 

बापू ने समझाया है 

बापू ने समझाया है 

महात्मा-ग़ाँधी | नुशूर वाहिदी

शब-ए-एशिया के अँधेरे में सर-ए-राह जिस की थी रौशनी 

वो गौहर किसी ने छुपा लिया वो दिया किसी ने बुझा दिया 

जो शहीद-ए-ज़ौक़-ए-हयात हो उसे क्यूँ कहो कि वो मर गया 

उसे यूँ ही रहने दो हश्र तक ये जनाज़ा किस ने उठा दिया 

तिरी ज़िंदगी भी चराग़ थी तेरी गर्म-ए-ग़म भी चराग़ है 

कभी ये चराग़ जला दिया कभी वो चराग़ जला दिया 

जिसे ज़ीस्त से कोई प्यार था उसे ज़हर से सरोकार था 

वही ख़ाक-ओ-ख़ूँ में पड़ा मिला जिसे दर्द-ए-दिल ने मज़ा दिया 

जिसे दुश्मनी पे ग़ुरूर था उसे दोस्ती से शिकस्त दी 

जो धड़क रहे थे अलग अलग उन्हें दो दिलों को मिला दिया 

जो न दाग़ चेहरा मिटा सके उन्हें तोड़ना ही था आइना 

जो ख़ज़ाना लूट सके नहीं उसे रहज़नों ने लुटा दिया 

वो हमेशा के लिए चुप हुए मगर इक जहाँ को ज़बान दो 

वो हमेशा के लिए सो गए मगर इक जहाँ को जगा दिया 

महात्मा-ग़ाँधी का क़त्ल | आनंद नारायण मुल्ला

मशरिक़ का दिया गुल होता है मग़रिब पे सियाही छाती है 

हर दिल सन सा हो जाता है हर साँस की लौ थर्राती है 

उत्तर दक्खिन पूरब पच्छिम हर सम्त से इक चीख़ आती है 

नौ-ए-इंसाँ काँधों पे लिए गाँधी की अर्थी जाती है 

आकाश के तारे बुझते हैं धरती से धुआँ सा उठता है 

दुनिया को ये लगता है जैसे सर से कोई साया उठता है 

कुछ देर को नब्ज़-ए-आलम भी चलते चलते रुक जाती है 

हर मुल्क का परचम गिरता है हर क़ौम को हिचकी आती है 

तहज़ीब जहाँ थर्राती है तारीख़-ए-बशर शरमाती है 

मौत अपने कटे पर ख़ुद जैसे दिल ही दिल में पछताती है 

इंसाँ वो उठा जिस का सानी सदियों में भी दुनिया जन न सकी 

मूरत वो मिटी नक़्क़ाश से भी जोबन के दोबारा बन न सकी 

देखा नहीं जाता आँखों से ये मंज़र-ए-इबरतनाक-ए-वतन 

फूलों के लहू के प्यासे हैं अपने ही ख़स-ओ-ख़ाशाक-ए-वतन 

हाथों से बुझाया ख़ुद अपने वो शोला-ए-रूह पाक-ए-वतन 

दाग़ उस से सियह-तर कोई नहीं दामन पे तिरे ऐ ख़ाक-ए-वतन 

पैग़ाम-ए-अजल लाई अपने उस सब से बड़े मोहसिन के लिए 

ऐ वाए-तुलू-ए-आज़ादी आज़ाद हुए उस दिन के लिए 

जब नाख़ुन-ए-हिकमत ही टूटे दुश्वार को आसाँ कौन करे 

जब ख़ुश्क हुआ अब्र-ए-बाराँ ही शाख़ों को गुल-अफ़शाँ कौन करे 

जब शोला-ए-मीना सर्द हो ख़ुद जामों को फ़रोज़ाँ कौन करे 

जब सूरज ही गुल हो जाए तारों में चराग़ाँ कौन करे 

नाशाद वतन अफ़्सोस तिरी क़िस्मत का सितारा टूट गया 

उँगली को पकड़ कर चलते थे जिस की वही रहबर छूट गया 

उस हुस्न से कुछ हस्ती में तिरी अज़दाद हुए थे आ के बहम 

इक ख़्वाब-ओ-हक़ीक़त का संगम मिट्टी पे क़दम नज़रों में इरम 

इक जिस्म-ए-नहीफ़-ओ-ज़ार मगर इक अज़्म-ए-जवान-ओ-मुस्तहकम 

चश्म-ए-बीना मा'सूम का दिल ख़ुर्शीद नफ़स ज़ौक़-ए-शबनम 

वो इज्ज़-ए-ग़ुरूर-ए-सुल्ताँ भी जिस के आगे झुक जाता था 

वो मोम कि जिस से टकरा कर लोहे को पसीना आता था 

सीने में जो दे काँटों को भी जा उस गुल की लताफ़त क्या कहिए 

जो ज़हर पिए अमृत कर के उस लब की हलावत क्या कहिए 

जिस साँस में दुनिया जाँ पाए उस साँस की निकहत क्या कहिए 

जिस मौत पे हस्ती नाज़ करे उस मौत की अज़्मत क्या कहिए 

ये मौत न थी क़ुदरत ने तिरे सर पर रक्खा इक ताज-ए-हयात 

थी ज़ीस्त तिरी मेराज-ए-वफ़ा और मौत तिरी मेराज-ए-हयात 

यकसाँ नज़दीक-ओ-दूर पे था बारान-ए-फ़ैज़-ए-आम तिरा 

हर दश्त-ओ-चमन हर कोह-ओ-दमन में गूँजा है पैग़ाम तिरा 

हर ख़ुश्क-ओ-तर हस्ती पे रक़म है ख़त्त-ए-जली में नाम तिरा 

हर ज़र्रे में तेरा मा'बद हर क़तरा तीरथ धाम तिरा 

उस लुत्फ़-ओ-करम के आईं में मर कर भी न कुछ तरमीम हुई 

इस मुल्क के कोने कोने में मिट्टी भी तिरी तक़्सीम हुई 

तारीख़ में क़ौमों की उभरे कैसे कैसे मुम्ताज़ बशर 

कुछ मुल्क के तख़्त-नशीं कुछ तख़्त-फ़लक के ताज-बसर 

अपनों के लिए जाम-ओ-सहबा औरों के लिए शमशीर-ओ-तबर 

नर्द-ओ-इंसाँ टपती ही रही दुनिया की बिसात-ए-ताक़त पर 

मख़्लूक़ ख़ुदा की बन के सिपर मैदाँ में दिलावर एक तू ही 

ईमाँ के पयम्बर आए बहुत इंसाँ का पयम्बर एक तू ही 

बाज़ू-ए-फ़र्दा उड़ उड़ के थके तिरी रिफ़अत तक जा न सके 

ज़ेहनों की तजल्ली काम आई ख़ाके भी तिरे हाथ आ न सके 

अलफ़ाज़-ओ-मा'नी ख़त्म हुए उनवाँ भी तिरा अपना न सके 

नज़रों के कँवल जल जल के बुझे परछाईं भी तेरी पा न सके 

हर ईल्म-ओ-यकीं से बाला-तर तू है वो सिपेह्र-ए-ताबिंदा 

सूफ़ी की जहाँ नीची है नज़र शाइ'र का तसव्वुर शर्मिंदा 

पस्ती-ए-सियासत को तू ने अपने क़ामत से रिफ़अत दी 

ईमाँ की तंग-ख़याली को इंसाँ के ग़म की वुसअ'त दी 

हर साँस से दर्स-ए-अमन दिया हर जब्र पे दाद-ए-उल्फ़त दी 

क़ातिल को भी गर लब हिल न सके आँखों से दुआ-ए-रहमत दी 

हिंसा को अहिंसा का अपनी पैग़ाम सुनाने आया था 

नफ़रत की मारी दुनिया में इक प्रेम संदेसा लाया था 

उस प्रेम संदेसे को तेरे सीनों की अमानत बनना है 

सीनों से कुदूरत धोने को इक मौज-ए-नदामत बनना है 

उस मौज को बढ़ते बढ़ते फिर सैलाब-ए-मोहब्बत बनना है 

उस सैल-ए-रवाँ के धारे को इस मुल्क की क़िस्मत बनना है 

जब तक न बहेगा ये धारा शादाब न होगा बाग़ तिरा 

ऐ ख़ाक-ए-वतन दामन से तिरे धुलने का नहीं ये दाग़ तिरा 

जाते जाते भी तो हम को इक ज़ीस्त का उनवाँ दे के गया 

बुझती हुई शम-ए-महफ़िल को फिर शो'ला-ए-रक़्साँ दे के गया 

भटके हुए गाम-ए-इंसाँ को फिर जादा-ए-इंसाँ दे के गया 

हर साहिल-ए-ज़ुल्मत को अपना मीनार-ए-दरख़्शाँ दे के गया 

तू चुप है लेकिन सदियों तक गूँजेगी सदा-ए-साज़ तिरी 

दुनिया को अँधेरी रातों में ढारस देगी आवाज़ तिरी

बाबा गाँधी | आफ़ताब रईस पानीपती

स्वराज का झंडा भारत में गड़वा दिया गाँधी बाबा ने 

दिल क़ौम-ओ-वतन के दुश्मन का दहला दिया गाँधी बाबा ने 

उल्फ़त की राह में मर जाना पर नाम जहाँ में कर जाना 

ये पाठ वतन के बच्चों को सिखला दिया गाँधी बाबा ने 

इक धर्म की ताक़त दिखला कर ज़ालिम के छक्के छुड़वा कर 

भारत का लोहा दुनिया से मनवा दिया गाँधी बाबा ने 

ऐ क़ौम वतन के परवानो लो अपने फ़र्ज़ को पहचानो 

अब जेल से ये पैग़ाम हमें भिजवा दिया गाँधी बाबा ने 

चर्ख़े की तोप चला दो तुम ग़ैरों के छक्के छुड़ा दो तुम 

ये हिन्द का चक्र-सुदर्शन है समझा दिया गाँधी बाबा ने 

नफ़रत थी ग़रीबों से जिन को हैं शाद अछूतों से मिल कर 

इक प्रेम-प्याला दुनिया को पिलवा दिया गाँधी बाबा ने 

गिर्दाब में क़ौम की कश्ती थी तूफ़ान बपा थे आफ़त के 

नेशन का बेड़ा साहिल पर लगवा दिया गाँधी बाबा ने 

भगवान भगत ने हिम्मत की इक प्रेम-ज्वाला जाग उठी 

करवा कर शीर-ओ-शकर सब को दिखला दिया गाँधी बाबा ने 

हँस हँस कर क़ौम के बच्चों ने सीनों पर गोलियाँ खाई हैं 

भारत की रह में मर मिटना सिखला दिया गाँधी बाबा ने 

ग़ैरों के झानसों में आना दुश्वार है हिन्द के लालों को 

आँखों से ग़फ़लत का पर्दा उठवा दिया गाँधी बाबा ने

गाँधी | साहिर होशियारपुरी

एक फ़क़ीर 

एक इंसाँ पैकर-ए-इख़्लास रूह-ए-रास्ती 

इक फ़क़ीर-ए-बे-नवा ईसार जिस की ज़िंदगी 

जिस के हर क़ौल-ओ-अमल में अम्न का पैग़ाम था 

जिस का हर इक़दाम गोया आफ़ियत-अंजाम था 

जिस की दुनिया बंदगी भगती सुरूर-ए-जावेदाँ 

जिस की दुनिया कैफ़-ओ-सरमस्ती की हासिल बे-गुमाँ 

आश्ती थी जिस की फ़ितरत जिस का मज़हब प्यार था 

ख़िदमत-ए-इंसानियत का जो अलम-बरदार था 

अज़्म ने जिस के हर इक मुश्किल को आसाँ कर दिया 

जज़्बा-ए-एहसास-ए-ख़ुद्दारी बशर में भर दिया 

नाज़ उठाए हिन्द के वो हिन्द का ग़म-ख़्वार था 

कारवान-ए-हुर्रियत का रहबर-ओ-सालार था 

ये भी है मोजिज़-बयानी उस की हर तहरीर की 

नक़्श-ए-फ़र्सूदा से पैदा इक नई तस्वीर की 

ख़ाक से शो'ले उठे और आसमाँ पर छा गए 

माह-ओ-अंजुम बन गए कौन-ओ-मकाँ पर छा गए 

तीरगी भागी जहालत की फ़ज़ा छुटने लगी 

हौले हौले तीरा-ओ-तारीक शब कटने लगी 

हर तरफ़ कैफ़-ओ-मसर्रत हर तरफ़ नूर-ओ-सुरूर 

ग़ुंचे ग़ुंचे पर तबस्सुम चश्म-ए-नर्गिस पर ग़ुरूर 

ये फ़ुसूँ-कारी हुई जिस के सबब वो कौन था 

ये जुनूँ-कारी हुई जिस के सबब वो कौन था 

नाम था गाँधी मगर उस के हज़ारों नाम हैं 

एक मय-ख़ाना है जिस में हर तरह के जाम हैं 

ज़िक्र-ए-गाँधी | आदिल जाफ़री

एक-आध साल से है फ़ज़ा मुल्क की कुछ और 

ग़ालिब सदी के बाद है गाँधी सदी का दौर 

गाँधी को कौन ऐसा है जो जानता न हो 

इज़्ज़त के साथ उन को बड़ा मानता न हो 

बापू तो उन को प्यार से कहते हैं आज भी 

हर दिल पे सच जो पूछिए है उन का राज भी 

दम से उन्हीं के दौर-ए-ग़ुलामी हुआ तमाम 

आसानी में बदल गया दुश्वार था जो काम 

उस रहबर-ए-अज़ीम ने हम को वो बल दिए 

अंग्रेज़ मुल्क छोड़ के ख़ामोश चल दिए 

सच और उस के साथ अहिंसा की धूम है 

दुनिया का अब समाधी पे उन की हुजूम है 

हर शख़्स सर-निगूँ है बड़े एहतिराम से 

'आदिल' ये क़द्र होती है बे-लौस काम से

गाँधी-जयंती पर | कँवल डिबाइवी

उठी चारों तरफ़ से जब कि ज़ुल्म-ओ-जब्र की आँधी 

पयाम-ए-अम्न ले कर आ गए रूह-ए-ज़माँ गाँधी 

बने हिन्दोस्ताँ के वास्ते वो रहबर-ए-कामिल 

तवस्सुल से उन्ही के पाई हम ने अपनी ख़ुद मंज़िल 

हुई रौशन उजाले से दयार-ए-हिन्द की वादी 

जलाई इस तरह की आप ने इक शम-ए-आज़ादी 

उन्ही ने जब्र से अंग्रेज़ के हम को छुड़ाया था 

सदाक़त का शराफ़त का हमें रस्ता बताया था 

दिखाई राह वो हम को जो गौतम ने दिखाई थी 

बताई बात वो फिर से जो ईसा ने बताई थी 

उख़ुव्वत के वो दरिया थे मोहब्बत के वो साहिल थे 

अहिंसा के वो दाई' थे वो यक-जेहती के क़ाइल थे 

सबक़ फिर से पढ़ाया था जहाँ-भर को भलाई का 

ज़माना आज भी मश्कूर है उस हक़ के दाई' का 

ग़रीबों की नहीफ़ों की हमेशा दस्त-गीरी की 

न पर्वा की मुसीबत की न पर्वा की असीरी की 

हमारे दिल मुनव्वर कर दिए नूर-ए-मोहब्बत से 

हुए आगाह अहल-ए-दहर रम्ज़-ए-आदमियत से 

वतन के आसमाँ पर एक रख़्शंदा सितारे थे 

हमें ये फ़ख़्र है अहल-ए-जहाँ गाँधी हमारे थे

गाँधी-जी की आवाज़ |नाज़िश प्रतापगढ़ी

सलाम ऐ उफ़ुक़-ए-हिन्द के हसीं तारो 

सलाम तुम पे सिपहर-ए-वतन के मह-पारो 

सलाम तुम पे मिरे बच्चो ऐ मिरे प्यारो 

भुलाए बैठे हो तुम मुझ को किस लिए यारो 

जलाओ मेरे पयामात के दिए यारो 

सुनो कि मेरी तमन्ना-ओ-आरज़ू तुम हो 

सुनो कि मादर-ए-भारत की आबरू तुम हो 

सुनो कि अम्न-ए-ज़माना की जुस्तुजू तुम हो 

ख़मोश बैठे हो क्यूँ अपने लब सिए यारो 

जलाओ मेरे पयामात के दिए यारो 

सलाम तुम पे कि मेरे चमन के फूल हो तुम 

मिरी नज़र मिरी फ़ितरत मिरा उसूल हो तुम 

मगर ये क्या हुआ किस वास्ते मलूल हो तुम 

ये तुम ने चंद ग़लत काम क्यूँ किए यारो 

जलाओ मेरे पयामात के दिए यारो 

वतन में ख़ून के दरिया बहा दिए तुम ने 

सभी नुक़ूश-ए-अहिंसा मिटा दिए तुम ने 

रिवाज-कार-ए-मोहब्बत भला दिए तुम ने 

रसूम-ए-मेहर-ओ-वफ़ा तर्क कर दिए यारो 

जलाओ मेरे पयामात के दिए यारो 

सबक़ पढ़ाया था तुम को अदम-तशद्दुद का 

तुम्हें बताया था मैं ने गुनाह है हिंसा 

ये तुम ने किस लिए तेग़-ओ-तबर से काम लिया 

तुम्हारे हाथों में ख़ंजर हैं किस लिए यारो 

जलाओ मेरे पयामात के दिए यारो 

तुम्हारे ज़ेहनों में मकरूह साज़िश और फ़साद 

दिलों में नफ़रत-ओ-कीना है और बुग़्ज़-ओ-इनाद 

मगर लबों पे है बाबा-ए-क़ौम ज़िंदाबाद 

मुझे ये खोखले नारे न चाहिए यारो 

जलाओ मेरे पयामात के दिए यारो 

ज़मीन नानक-ओ-चिश्ती पुकारती है तुम्हें 

दयार-ए-बुध की तजल्ली पुकारती है तुम्हें 

सुनो कनहैया की बंसी पुकारती है तुम्हें 

अब और देर भी करनी न चाहिए यारो 

जलाओ मेरे पयामात के दिए यारो 

उठो ज़माना-ए-हाज़िर है इक पयाम-ए-अमल 

उठो कि काँप रही है नवा-ए-साज़-ए-ग़ज़ल 

उठो कि माँद न हो जाए हुस्न-ए-ताज-महल 

उठो कि सीनों में फिर रौशनी जिए यारो 

जलाओ मेरे पयामात के दिए यारो 

फिर अपने ज़ेहनों में लहकाओ दोस्ती का चमन 

फिर अपनी साँसों से महकाओ प्यार का मधुबन 

फिर अपने कामों से चमकाओ सर-ज़मीन-ए-वतन 

तुम्हारे मय-कदे में दहर फिर पिए यारो 

जलाओ मेरे पयामात के दिए यारो 

न छोड़ो ज़िंदा वतन में किसी लुटेरे को 

कुचल दो बढ़ के हर इक साँप को सपेरे को 

मिटाओ फ़िरक़ा-परस्ती के हर अँधेरे को 

बचाओ देश को भगवान के लिए यारो 

जलाओ मेरे पयामात के दिए यारो 

मुझे ये खोखले नारे न चाहिए यारो 

गाँधी-जयंती | अर्श मलसियानी

भूल गई है आज तो रहबर-ए-हक़-निगाह को 

भूल गई है आज तू मर्द-ए-जहाँ-पनाह को 

भूल गई है आज तू ज़ब्त के बादशाह को 

तुझ से कहूँ तो क्या कहूँ ऐ मिरी बा-मुराद क़ौम 

ऐ मिरी ज़िंदाबाद क़ौम ऐ मिरी ज़िंदाबाद क़ौम 

तेरे महंत तो अभी मस्त हैं ज़ात-पात में 

तेरे बड़े बड़े गुरु ग़र्क़ हैं छूत-छात में 

आह कि ढूँढती है तू नूर अँधेरी रात में 

तुझ से कहूँ तो क्या कहूँ ऐ मिरी बा-मुराद क़ौम 

ऐ मिरी ज़िंदाबाद क़ौम ऐ मिरी ज़िंदाबाद क़ौम 

आह कि तू ने ज़ब्त के दर्स को भी भुला दिया 

आह कि तू ने क़ल्ब से नाम-ए-सफ़ा मिटा दिया 

आह कि दोस्तों को भी तू ने अदू बना दिया 

तुझ से कहूँ तो क्या कहूँ ऐ मिरी बा-मुराद क़ौम 

ऐ मिरी ज़िंदाबाद क़ौम ऐ मिरी ज़िंदाबाद क़ौम 

तेरे मुशीर बे-अमल तेरे वज़ीर बे-अमल 

तेरे ग़रीब बे-अमल तेरे अमीर बे-अमल 

तेरे सफ़ीर बे-अमल तेरे कबीर बे-अमल 

तुझ से कहूँ तो क्या कहूँ ऐ मिरी बा-मुराद क़ौम 

ऐ मिरी ज़िंदाबाद क़ौम ऐ मिरी ज़िंदाबाद क़ौम 

उफ़ कि क़दम क़दम पे है तेरा शरीक अहरमन 

उफ़ कि तुझे नसीब हैं फिरका-परस्त राहज़न 

उफ़ कि तुझे अज़ीज़ हैं चर्ब-ज़बान-ओ-बद-सुख़न 

तुझ से कहूँ तो क्या कहूँ ऐ मिरी बा-मुराद क़ौम 

ऐ मिरी ज़िंदाबाद क़ौम ऐ मिरी ज़िंदाबाद क़ौम 

उफ़ कि जहालतों पे भी अक़्ल का है गुमाँ तुझे 

उफ़ कि अभी पसंद है जहल की दास्ताँ तुझे 

उफ़ कि है फ़िरक़ा दोस्ती देती अभी अमाँ तुझे 

तुझ से कहूँ तो क्या कहूँ ऐ मिरी बा-मुराद क़ौम 

ऐ मिरी ज़िंदाबाद क़ौम ऐ मिरी ज़िंदाबाद क़ौम 

ज़ुल्म किए हैं तू ने जो ज़ुल्म के शाहिदों से पूछ 

क़त्ल किए हैं किस क़दर अपने मुजाहिदों से पूछ 

पीते हैं रोज़ कितनी मय झूट के ज़ाहिदों से पूछ 

तुझ से कहूँ तो क्या कहूँ ऐ मिरी बा-मुराद क़ौम 

ऐ मिरी ज़िंदाबाद क़ौम ऐ मिरी ज़िंदाबाद क़ौम 

दर्स-ए-महात्मा का भी तुझ पर कोई असर नहीं 

क़ौल-ए-महात्मा पे भी आज तिरी नज़र नहीं 

कौन है उस का जा-नशीं इस की तुझे ख़बर नहीं 

तुझ से कहूँ तो क्या कहूँ ऐ मिरी बा-मुराद क़ौम 

ऐ मिरी ज़िंदाबाद क़ौम ऐ मिरी ज़िंदाबाद क़ौम 

तुझ को बताए कौन आज अस्ल में राहबर है कौन 

तुझ को बताए कौन आज बंदा-ए-मो'तबर है कौन 

तुझ को बताए कौन आज पीर-ए-जवाँ-नज़र है कौन 

तुझ से कहूँ तो क्या कहूँ ऐ मिरी बा-मुराद क़ौम 

ऐ मिरी ज़िंदाबाद क़ौम ऐ मिरी ज़िंदाबाद क़ौम 

देख न चश्म-ए-शौक़ से पत्थरों के तो तौर तू 

क़द्र-ए-जवाहर-ए-हसीं देख ब-चश्म-ए-ग़ौर तू 

वर्ना हज़ार ज़िल्लतें तेरे लिए हैं और तू 

तुझ से कहूँ तो क्या कहूँ ऐ मिरी बा-मुराद क़ौम 

ऐ मिरी ज़िंदाबाद क़ौम ऐ मिरी ज़िंदाबाद क़ौम

गाँधी जी | कैफ़ अहमद सिद्दीकी

वक़ार-ए-मादर-ए-हिन्दोस्ताँ थे गाँधी जी 

हर एक फ़र्द के हमदर्द ग़म-गुसार-ए-वतन 

सदाक़तों के परस्तार झूट के दुश्मन 

निज़ाम-ए-अम्न के रूह-ए-रवाँ थे गाँधी जी 

वक़ार-ए-मादर-ए-हिन्दोस्ताँ थे गाँधी जी 

वो एकता के पुजारी हर एक के भाई 

वो फ़ख़्र-ए-क़ौम वो इंसानियत के शैदाई 

ज़मीं पे रह के भी इक आसमाँ थे गाँधी जी 

वक़ार-ए-मादर-ए-हिन्दोस्ताँ थे गाँधी जी 

कली कली को तबस्सुम का एक ढंग दिया 

हर एक फूल को अपने लहू का रंग दिया 

बहार-ए-गुलशन-ए-अम्न-ओ-अमाँ थे गाँधी जी 

वक़ार-ए-मादर-ए-हिन्दोस्ताँ थे गाँधी जी 

हर एक दिल में जलाया चराग़-ए-आज़ादी 

है जिन के ख़ून से शादाब बाग़-ए-आज़ादी 

हमारे मुल्क के वो बाग़बाँ थे गाँधी जी 

वक़ार-ए-मादर-ए-हिन्दोस्ताँ थे गाँधी जी 

सुनी न बात तशद्दुद भरे उसूलों की 

महक लुटाई अहिंसा के नर्म फूलों की 

ख़ुलूस-ओ-इज्ज़ के इक गुलिस्ताँ थे गाँधी जी 

वक़ार-ए-मादर-ए-हिन्दोस्ताँ थे गाँधी जी 

महात्मा-ग़ाँधी | बिस्मिल इलाहाबादी

सुना रहा हूँ तुम्हें दास्तान गाँधी की 

ज़माने-भर से निराली है शान गाँधी की 

रहे रहे न रहे इस में जान गाँधी की 

न रुक सकी न रुकेगी ज़बान गाँधी की 

यही सबब है जो वो दिल से सब को प्यारा है 

वतन का अपने चमकता हुआ सितारा है 

बना था मस्त कोई और कोई सौदाई 

हर एक सम्त थी ग़फ़्लत की जब घटा छाई 

तो उस की अक़्ल-ए-रसा काम वक़्त पर आई 

मरीज़-ए-मुल्क है मम्नून-ए-चारा-फ़रमाई 

नए ख़याल में इक इक का दिल असीर हुआ 

उधर अमीर हुआ और उधर फ़क़ीर हुआ 

जफ़ा-ओ-जौर ने की ख़ूब अपनी बर्बादी 

ख़राब-हाल न दिल रात क्यूँ हूँ फ़रियादी 

बना दिया था क़फ़स का बुरी तरह आदी 

मगर है शुक्र मिला हम को दर्स-ए-आज़ादी 

ज़माना कहता है गाँधी महात्मा वो है 

बशर नहीं है हक़ीक़त में देवता वो है 

जो दिल में याद है तो लब पे नाम उस का है 

जो है तो ज़िक्र फ़क़त सुब्ह-ओ-शाम उस का है 

भलाई सब की हो जिस से वो काम उस का है 

जहाँ भी जाओ वहीं एहतिराम उस का है 

उठाए सर कोई क्या सर उठा नहीं सकता 

मुक़ाबले के लिए आगे आ नहीं सकता 

किसी से उस को मोहब्बत किसी से उल्फ़त है 

किसी को उस की है उस को किसी की हसरत है 

वफ़ा-ओ-लुत्फ़ तरह्हुम की ख़ास आदत है 

ग़रज़ करम है मुदारात है इनायत है 

किसी को देख ही सकता नहीं है मुश्किल में 

ये बात क्यूँ है कि रखता है दर्द वो दिल में 

वो रश्क-ए-शम-ए-हिदायात है अंजुमन के लिए 

वो मिस्ल-ए-रूह-ए-रवाँ उंसुर-ए-बदन के लिए 

वो एक साग़र-ए-नौ महफ़िल-ए-कुहन के लिए 

वो ख़ास मसलह-ए-कुल शैख़-ओ-बरहमन के लिए 

लगन उसे है कि सब मालिक-ए-वतन हो जाएँ 

क़फ़स से छूट के ज़ीनत-दह-ए-चमन हो जाएँ 

जफ़ा-शिआ'र से होता है बर-सर-ए-पैकार 

न पास तोप न गोला न क़ब्ज़े में तलवार 

ज़माना ताबा-ए-इरशाद हुक्म पर तय्यार 

वो पाक शक्ल से पैदा हैं जोश के आसार 

किसी ख़याल से चर्ख़े के बल पे लड़ता है 

खड़ी है फ़ौज ये तन्हा मगर अकड़ता है 

तरह तरह के सितम दिल पर अपने सहता है 

हज़ार कोई कहे कुछ ख़मोश रहता है 

कहाँ शरीक हैं आँखों से ख़ून बहता है 

सुनो सुनो कि ये इक कहने वाला कहता है 

जो आबरू तुम्हें रखनी हो जोश में आओ 

रहो न बे-खु़द-ओ-बे-होश होश में आओ 

उसी को घेरे अमीर-ओ-ग़रीब रहते हैं 

नदीम-ओ-मूनिस-ओ-यार-ओ-हबीब रहते हैं 

अदब के साथ अदब से अदीब रहते हैं 

नसीब-वर हैं वो बड़े ख़ुश-नसीब रहते हैं 

कोई बताए तो यूँ देख-भाल किस की है 

जो उस से बात करे ये मजाल किस की है 

रिफ़ाह-ए-आम से रग़बत है और मतलब है 

अनोखी बात निराली रविश नया ढब है 

यही ख़याल था पहले यही ख़याल अब है 

फ़क़त है दीन यही बस यही तो मज़हब है 

अगर बजा है तो 'बिस्मिल' की अर्ज़ भी सुन लो 

चमन है सामने दो-चार फूल तुम चुन लो 

महात्मा-ग़ाँधी | चरख़ चिन्योटी

बापू ने हर इंसान को इंसाँ समझा 

बहबूदी-ए-हर-फ़र्द को ईमाँ समझा 

इंजील को क़ुरआन को और गीता को 

सीने से लगाया उन्हें यकसाँ समझा 

ता'मीर-ए-वतन से थी मोहब्बत उस को 

सच्चाई का उपदेश दिया बापू ने 

तख़रीब-परस्ती से थी नफ़रत उस को 

प्रचार अहिंसा का किया बापू ने 

ये देश का था एकता-वादी लीडर 

क़ुर्बानी-ओ-ईसार के जज़्बे के तुफ़ैल 

मर्ग़ूब थी तंज़ीम-ए-जमाअत उस को 

छीना हुआ स्वराज लिया बापू ने 

नफ़रत से भरी आग बुझा दी उस ने 

तहरीक-ए-नवा खुली दबा दी उस ने 

वहशत-ज़दा माहौल-ए-सियह में ऐ चर्ख़ 

इक शम्अ' उख़ुव्वत की जल्लादी उस ने

गाँधी के बा'द |इज़हार मलीहाबादी

बा'द गाँधी के न सुन हम ने समाँ देखा क्या 

फ़स्ल-ए-गुल आते ही हर बाग़-ओ-चमन उजड़ा क्या 

दिल ही अफ़्सुर्दा हो जब पेशकश-ए-सहबा क्या 

आँख ही जब न रहे दावत-ए-नज़्ज़ारा क्या 

ज़िंदगी मौत से बद-तर हो तो फिर जीना क्या 

भूक से दामन-ए-हस्ती को सिए जाते हैं 

ज़िंदगी छीन के औरों के जिए जाते हैं 

हर-नफ़स अहद वफ़ाओं के लिए जाते हैं 

ख़ून अर्ज़ां है ग़रीबों का पिए जाते हैं 

जब ये पीने ही पर आ जाएँ तो फिर दरिया क्या 

हुस्न भी ग़मज़ा-ओ-अंदाज़-ओ-अदा भूल गया 

इश्क़ भी जल्वा-ए-रंगीं की ज़िया भूल गया 

जो परस्तार-ए-वफ़ा था वो वफ़ा भूल गया 

राह सुनते हैं कि ख़ुद राह-नुमा भूल गया 

कारवाँ मंज़िल-ए-मक़्सूद पे पहुँचाता क्या 

ये जो आई है हमारे ही लहू की है बहार 

ये जो उड़ता है हमारे ही दिलों का है ग़ुबार 

बरहमन है तो कोई आबिद-ए-शब-ज़िंदादार 

कोई सुनता नहीं इस दौर में इंसाँ की पुकार 

बज़्म-ए-मातम में जो छेड़े तो कोई नग़्मा क्या 

ख़िर्मन-ए-ज़ुल्म को अब आग लगा दे कोई 

चाँद-तारों के चराग़ों को बुझा दे कोई 

आसमानों को ज़मीनों पे झुका दे कोई 

जा के 'गाँधी' कि ये सब हाल सुना दे कोई 

ज़ुल्म ढाते हैं अहिंसा के पुजारी क्या क्या 

गाँधी | हुरमतुल इकराम

आग़ोश में फूलों की थिरकता हुआ शो'ला 

अँगारों के गहवारे में सोई हुई शबनम 

इक जज़्बा इक एहसास इक अंदाज़ इक आवाज़ 

निखरा हुआ इक दर्द तपाया हुआ इक ग़म 

इंसान की सूरत में धड़कता हुआ इक दिल 

पैकर में अनासिर के कोई दीदा-ए-पुर-नम 

सीने में समोए हुए गंगा का तमव्वुज 

काँधे पे हिमाला का उठाए हुए परचम 

नैरंगी-ए-अफ़्कार का सिमटा हुआ दरिया 

बे-ताबी-ए-जज़बात का ठहरा हुआ तूफ़ाँ 

फ़ारूक़ का मतवाला उख़ुव्वत का पुजारी 

'गौतम' का दिला-राम अहिंसा की रग-ए-जाँ 

अपनी ही ख़ताओं का वो नक़्क़ाद जवाँ-फ़िक्र 

वो अपने ही असरार का इक सैल-ए-ख़िरामाँ 

माहौल के सीने का दहकता हुआ लावा 

तारीख़ के माथे पे सजाई हुई अफ़्शाँ 

महात्मा-ग़ाँधी | रविश सिद्दीक़ी

मुसाफ़िर-ए-अबदी की नहीं कोई मंज़िल 

यहाँ क़याम किया या वहाँ क़याम किया 

तिरी वफ़ा ने बड़े मरहले किए आसाँ 

फ़रोग़-ए-सुब्ह को तो ने फ़रोग़ काम किया 

सनम-कदों में बढ़ा ए'तिबार-ए-अहल-ए-हरम 

हरम ने दैर-नशीनों का एहतिराम किया 

हयात क्या है मोहब्बत की आग में जलना 

ये राज़ भी तिरे सोज़-ए-वफ़ा ने आम किया 

उठा उठा के हिजाबात-ए-चेहरा-ए-मंज़िल 

मुसाफ़िरान-ए-सदाक़त को तेज़-गाम किया 

गुज़र के दानिश-ए-हाज़िर के आसमानों से 

बुलंद सादगी-ए-इश्क़ का मक़ाम किया 

मिला जो दस्त-ए-हवादिस से ज़हर भी तुझ को 

बड़े ख़ुलूस से तू ने शरीक-ए-जाम किया 

वो दर्द तेरी ख़मोशी में था निहाँ जिस ने 

सुकूत-ए-नाज़ को आमादा-ए-कलाम किया 

सिला था तेरी रियाज़त का सुब्ह-ए-आज़ादी 

वो सुब्ह जिस को ग़ुलामों ने नंग-ए-शाम किया 

अभी तो गोश-बर-आवाज़ थी भरी महफ़िल 

कहाँ ये तू ने कहानी का इख़्तिताम किया 

ख़याल-ए-दोस्त का परतव थी काएनात तिरी 

इसी तलाश में गुम हो गई हयात तिरी 

गाँधी | इक़बाल सुहैल

वो हदीस-ए-रूह पयाम-ए-जाँ जिसे हम ने सुन के भुला दिया 

वो हरीम-ए-ग़ैब का अरमुग़ाँ जिसे पा के हम ने गँवा दिया 

वो मुल्क-ओ-मिल्लत-ए-जाँ-ब-लब जिसे उस ने आब-ए-बक़ा दिया 

उसी ना-सिपास ने हाए अब उसे जाम-ए-मर्ग पिला दिया 

हमें जिस ने फ़त्ह दिलाई थी उसे ख़ाक-ओ-ख़ूँ में मिला दिया 

हमें जिस ने राह दिखाई थी उसे रास्ते से हटा दिया 

उसे इत्तिबा-ए-मसीह ने वो अजीब दस्त-ए-शिफ़ा दिया 

जो गिरे थे उन को उठा दिया जो मरे थे उन को जला दिया 

जो उठा था शो'ला-ए-शोर-ओ-शर उसे अपने ख़ूँ से बुझा दिया 

जो पड़ा था पर्दा निगाहों में उसे आप उठ के उठा दिया 

वो ख़मीदा-क़द ख़म-ए-माह-ए-नौ वो नज़र-फ़रेब ख़ुनुक सी ज़ौ 

वो निगाह-ए-बर्क़-ए-अमल की रौ कि दिलों को जिस ने हिला दिया 

वो फ़रोग़-बख़्श-ए-हर-अंजुमन कि ज़माना-भर में था ज़ौ-फ़गन 

वो चराग़-ए-बज़्म गह-ए-वतन किसी तीरा-दिल ने बुझा दिया 

वो किताब-ए-सुल्ह का सर-वरक़ कि मिटाई कश्मकश-ए-फ़िरक़ 

वो क़तील-ए-ख़ंजर-ए-सब्र-ओ-हक़ कि वतन पे ख़ुद को मिटा दिया 

वो बोध और कृष्न का जा-नशीं हमा-तन अमल हमा-तन यक़ीं 

वो तबस्सुम-ए-सहर-आफ़रीं कि चमन लबों से खिला दिया 

वो ब-रंग-ए-आईना साफ़-दिल वो फ़रोग़-ए-फ़ित्रत-ए-आब-ओ-गिल 

कि जिहाद-ए-नफ़्स ने मुस्तक़िल उसे और हुस्न-ए-जिला दिया 

वो जलाल-ए-शेवा-ए-सादगी वो जमाल-ए-सूरत-ए-ज़िंदगी 

वो ज़ुलाल-ए-चश्मा-ए-आगही कि ज़माना-भर को जगा दिया 

वो शरारा बर्क़-ए-हयात का वो सितारा राह-ए-नजात का 

वो मनारा अज़्म-ओ-सबात का जिसे फ़ित्ना-साज़ ने ढा दिया 

असर उस का अब है वसीअ-तर कि हर एक दिल में है उस का घर 

ये समझ के ख़ुश न हों फ़ित्ना-गर कि उसे पयाम-ए-फ़ना दिया 

तिरी शान कौन घटा सके उसे ख़ुद ख़ुदा ने बढ़ा दिया 

कि तुझे बक़ा-ए-दवाम दी तुझे मंसब-ए-शोहदा दिया 

तिरी ख़ामुशी वो ज़बान थी कि दिलों को जोश-ए-नवा दिया 

तन-ए-फ़ाक़ा-कश में वो जान थी कि हिसार-ए-किब्र हिला दिया 

वतन-ए-अज़ीज़ को शान दी उसे क़ैद-ए-ग़म से छुड़ा दिया 

रह-ए-इत्तिहाद में जान दी जो कहा वो कर के दिखा दिया 

जिन्हें ज़ेर कर न सका सितम हुए सैद-ए-सिलसिला-ए-करम 

तिरी नेकियों ने तिरी क़सम सर-ए-ख़ुद-सरी को झुका दिया 

ये उरूस-ए-किशवर-ए-हिन्द थी हमा बेकसी हमा बद-दिली 

उसे तू ने ग़ाज़ा-ए-ख़ुर्रमी तिरे ख़ूँ ने रंग-ए-हिना दिया 

तुझे मंदिरों ने सदाएँ दीं कि तिरे करम से अमाँ मिली 

तुझे मस्जिदों ने दुआएँ दीं कि तबाहियों से बचा दिया 

ये कमाल-ए-पैरवी-ए-अली ये फ़राख़-हौसलगी तिरी 

कि ख़ुद अपने दुश्मन-ए-जाँ को भी वही अरमुग़ान-ए-दुआ दिया 

तुझे बेकसी ने सिपाह दी तुझे मुश्किलात ने राह दी 

तुझे बिजलियों ने पनाह दी तुझे तल्ख़ियों ने मज़ा दिया 

यही धर्म है यही अस्ल दीं कि हो क़ौल सच तो अमल हसीं 

हक़-ओ-अहल-ए-हक़ पे रहे यक़ीं ये पयाम सब को सुना दिया 

हमा रौशनी तिरी ज़ात थी हमा सोज़ तेरी हयात थी 

तिरी रूह शम्अ' थी गुल हुई तिरे तन को फूल बना दिया 

तिरा फ़ैज़ दहर में आम हो ये ग़ुबार उठ के ग़माम हो 

तिरी ख़ाक तेरा पयाम हो ये समझ के इस को बहा दिया

गाँधी | अर्श मलसियानी

शहीदों का सरताज जन्नत-मक़ाम 

मोहब्बत की मेराज ज़ी-एहतिराम 

ग़ुलामान-ए-आलम की पुश्त-ओ-पनाह 

अहिंसा के बंदों की उम्मीद-दगाह 

वो ग़म भी वतन का था ग़म-ख़्वार भी 

रज़ाकार भी और सालार भी 

अहिंसा का पैरव मगर शेर-ए-मर्द 

मोहब्बत में यकता सदाक़त में फ़र्द 

हुआ जिस के दम से ब-सद एहतिशाम 

सियासत से ऊँचा सदाक़त का नाम 

वो आदम की अज़्मत का आईना-दार 

वो ज़र्रा कि चमका था ख़ुरशीद-दार 

वो जिस ने दिया आदमियत को औज 

वो जिस ने लड़ाई अहिंसा की फ़ौज 

क़फ़स है कोई अब न सय्याद है 

वतन जिस की हिकमत से आज़ाद है 

वो नूर-ए-ज़िया-बार सीमा-ए-ख़ैर 

वो जूया-ए-ख़ैर-ओ-शनासा-ए-ख़ैर 

फ़िरिश्ता-खिसाल-ओ-फ़रिश्ता-सियर 

मलक दर-हक़ीक़त ब-ज़ाहिर बशर 

मोहब्बत की वो इक शबीह-ए-हसीं 

उख़ुव्वत का वो एक माह-ए-मुबीं 

वो हक़ आगही की कछारों का शेर 

सदाक़त के मैदाँ का मर्द-ए-दिलेर 

फ़लक-आफ़रीं और गर्दूँ-तराज़ 

मरीज़ान-ए-पस्ती का वो चारासाज़ 

वो कोताह-बीनों की शम-ए-शुऊ'र 

वो गुमराहियों में हिदायत का नूर 

वो जिस ने उठाया ज़माने का बार 

किया जिस ने जाबिर को बे-इख़्तियार 

वो बे-मिस्ल क़ाइद मुअस्सर ख़तीब 

वो लश्कर में जिस के अमीर-ओ-ग़रीब 

वो जिस ने करोड़ों के काटे हैं बंद 

वो अरफ़ा वो आ'ला वो सब से बुलंद 

वो जिस की अता है निराली अता 

वो जिस ने दिया इक नया फ़ल्सफ़ा 

ज़मीं पर बहा उस जरी का लहू 

तफ़ोबर तू ऐ चर्ख़-ए-गर्दां तफ़ू