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#विश्वगोरैयादिवस #कविता
पहले, बहुत पहले
तुम घर-आंगन चहकाती थी
कभी बरामदे, कभी आंगन, रोशनदान
या खेजड़ी की शाखाओं पर से
संग साथी शोर मचाती,
घर आंगन चहकाती थी!
कभी रोटी का टुकड़ा चुगने
निकट थाली के आ जाती
एक टुकड़ा मुह में दबा
फुर्र से उड़ जाती
फिर आती थी, फिर उड़ जाती थी
दादाजी देख तुमको कहते
बरखा होगी,
जब तुम मिट्टी में नहाती थी
कितनी सहज, सयानी थी
ऋतुओं का परिवर्तन बतलाती,
मौसम की अंगड़ाई महसूस कराती थी
पहले, बहुत पहले
तुम जीवन चहकाती थी
मैं अब-भी खाना खान
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