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साधक के मन को भाते,
एकाग्रता आभ्यन्तर तुम लाते!
मन विवश होकर जब भी हो कुंठित,
शक्ति कुंडलिनी में करते तुम सिंचित,
कर्ता भी हो तुम,भर्ता भी तो तुम ही!
गतिमान संसार का उद्गम तुम से ही!
सबकुछ होना जैसे माटी में विलीन,
द्वेष का भ्रमजाल भी अल्पकालीन!
स्वाध्याय से सशक्त मैं बनूं, द्वारकाधीश!
झुकाता आपके समक्ष मैं अपने शीश,
मैंने वेदों में भी खोजा बहुत सा ज्ञान,
जैसे चित्त ध्यान के बिना चलायमान!
कल्पनाशीलता सुचारू जहां तुम विद्यमान!
लुप्त हो समस्त मेरा नाज़ुक अभिमान,
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