
याद हैं वो प्यारी सी लगने वाली बात?
चांद भी चलता था संग जब होती थी रात!
मन मचलता था आने पर डरावने ख़यालात!
ठंड में सोने का मन करता था चाहे हो प्रभात!
नन्ही सी कुल्फी से जाता था मन बहल!
बिना अशांत हुए निकल जाते थे अनेक हल,
विचरण कर लेते थे दिवा स्वप्न में बनाकर हम महल!
बचपन जबसे भूले तो मुश्किल हो गई अब हर पहल,
उत्थान संग प्राथमिकताओं में यूं संतुलन लाएं,
सुबह से शाम दिल की भी ज़रा देर फरमाएं!
सारी खुशियां सिर्फ त्याग संग न तौली जाएं!
मुक्त होकर मोक्ष का मार्ग बने फिर और सरल!
कोई न जग में रहे बेरूखी से विचिलित तथा विकल!
फिर ख्वाबों जैसा क्यूं प्रतीत होता ऐसा सहज कल?
बचपन जैसी उत्सुकता से क्यूंकि ना करते हम सवाल!
सराहते चलिए परंपरा जिसमें लगते चबूतरों में चौपाल,
जहां खुली बातचीत से चुस्त विकास हो फिर बहाल,
विभिन्न मुद्दों पर समावेशी ढंग से हो पूर्ण पड़ताल।
- यति
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