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प्रफुल्लित, प्रखर पुरोहित मन,
इसे नृत्यकला की अनोखी लगन,
मान कर माटी का स्वयं को कण,
आश्वस्त हो लेता ये सुधार हेतु प्रण!
हर मुद्रा को निखारने में ये तल्लीन,
परखे भंगिमा रखकर नज़रे दूरबीन,
प्रगाढ़ ना हों शुष्क बेबुनियादी कथन,
कला से मिथकों का होता रहे पतन!
विलुप्त हो उठते समस्त मेरे जतन,
नृत्य के रियाज़ में जब भी रहूं मगन,
जब से हृदय को प्राप्त ये अनमोल रत्न,
तब से स्वयं को तराशने के होते प्रयत्न!
संस्कारों में होती जैसे ही नित बढ़त,
विकारों की मात्रा में होती स्वत: घटत,
कत्थक,कत्थकली,कुचिपुड़ी अलौकिक,
सत्त्रिया तथा छऊ मिटाएं इच्छाएं भौतिक!
ओडिसी,मणिपुरी से जाने विष्णु के स्वरूप,
प्रचंड,प्रबल अनादि का निर्मित होता प्रारूप,
मोहिनीअट्टम तथा भरतनाट्यम मानो दर्पण,
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