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ढ़ल रहा था सूरज
क्षणों में था इत्मीनान,
मिटता गया था सारा
उनका भी गुमान
चांदनी बिखरी थीं फिर
धरा पर कुछ ऐसे,
अंधेरे को मार्मिक
स्पर्श दे रही थीं वो जैसे
कठोर बातों का ना
निकला था कोई निष्कर्ष,
भले हो चुकी थी बहुत
दिमागी विचार-विमर्श
दख़ल हो चुकी थीं
पूरी तरह से खत्म,
रह गया था फिर भी
एक मीठा सा ज़ख्म
हो जाती जैसे
राख सारी भस्म,
हो गई थीं वैसे ही
पूरी रूठने की रस्म
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