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स्वप्न लोक की परिकल्पना,

या दिवास्वप्न की अवहेलना!

उम्र को तराज़ू में टटोलना,

या तकाज़ों का पिटारा हो खोलना,

चाहे जो हो संवाद में शेष,

आवश्यक सत्य ज़रूर हो पेश!

हो चाहे शब्द भले ही अल्प,

किंतु ना हो भाव छिपाने का विकल्प!

परत-दर-परत खुले गहन राज़,

छुए जो मन का हरेक साज़!

भूली बिखरी यादें हो फिर बिछी,

नाराज़गी आश्चर्य से हो छिपी!

पारमार्थिक दृष्टि हो सार्थक,

निस्वार्थ प्रेम हो प्रेरणार्थक!




- यती


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