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मैंने एक आरज़ू रखी,
तमन्ना-ए -इज़हार की,
ये दरकार फिर थी
की मिलेगी महफूज़
होने की तसल्ली,
आख़िर मुल्क
हमारा एक हैं,
हिंदुस्तान की दास्तां
में घुली इंसानियत और
कृपालता सर्वश्रेष्ठ हैं,
यहां तुम भी
और मैं भी
सब जानते सत्ता
का प्रतिपल सहूलियत
बरतना थोड़ा जटिल!
लेकिन तुम अपनी
आबरू को अत्यंत
पेचीदगी से चाहो,
ये मैं भी समझ सकती
इसमें द्वंद जैसा कुछ नहीं!
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