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दुविधा का समक्ष उपस्थित डेरा

जब सिमटता सुविधा का घेरा!

कष्ट की धूप अक्सर लेते सेक,

बेशक, मंशा आपकी होती नेक!

कुंठा के कारण का भी होगा अंत,

अंतर्द्वद साधारण मनुष्य हो या संत!

फिर भ्रम की समाप्ति के पश्चात,

दीजिए द्वेष के पनपने को मात!

क्यूंकि पढ़ा होगा आपने कई बार,

हुआ आपको पहले भी साक्षात्कार!

सामाजिक पृष्ठभूमि के कई आयाम,

तभी सजगता है मनुज को पैग़ाम!

क्रोध की ज्वाला भीतर ना दहकती

जब करुणा अवचेतन में महकती!

और मुक्कदर पर जब भी हो संवाद!

अपनी क्षमता का ना करना उपवाद,

भीतर प्रेरणा की ये जो लहर बरकरार,

कर्तव्य के पालन की उसे सदा दरकार!

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