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ज़ुल्म-ए-ज़माना,
गफलत का ये कैसा कारनामा,
सबा में आज रुआसी,
आलम में भी छाई उदासी!
कितनी यहां पर हैं नुमाइश!
कद्र की फिर कहां गुंजाइश?
जज़्बातों का हो एहतराम,
वो भी तो आखिर हस्सास!
ये जो हमारा इश्क़ हैं ना,
लगता मुझे बेहिसाब,
ये ही तो लगता फिंरोंज़ॉ,
ये ही तो लगता अफ़स़ूॅ!
करवटें बदलते,
सोचा मैं सुलझा लूंगी
मन जो हैं गर मुझसे खफा,
तसलसुल थी पर विचारों की दौड़,
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