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लगा रहे तुम समय का हिसाब?
कितना तुममें जुनून जीतने को खिताब?
क्या अक्सर पाने सपना रहते तुम बेताब?
क्या भरा तुम्हारे भीतर भी दर्द का सैलाब?
क्यों ना बना लो तुम दोस्त एक नई किताब!
हो जाओ तुम भी मुक्त फिर होकर बेनक़ाब!
करलो खुदके मन की तुम सुकून संग बेहिसाब!
यही तो मन के कोनों को रखेगा भाव से शादाब!
कुछ अनोखा लाओगे फिर तुम अपने स्वभाव!
कुछ नया जगाओं चेतना में की ओझिल हो अभाव!
भांपलों हकीकत, करलो हौले से सत्य का चुनाव!
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