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गहन थी आशंका,
वो दिन फिर आएगा
ओझिल होती उम्मीद को
फिर वो शख़्स भर पाएगा
सोचा किसी शख़्स से
फिर क्यूं आकांक्षा जोड़ी जाएं?
वादों के दरमियां भावों को
क्यूं इतना सताया जाएं?
चंद मिनटों का था वो दुमूहर्त,
जब हुआ होगा ये फरेब़,
कौड़ी के दाम लगाया सारा,
हृदय की निधि का भी टूटा एब!
अब फक्त किस्से हम सुनाते!
खुदको भूलने कहते वो वाक्या
जिसमें कीमत ना थी प्रेम की,
जिसमें विवेक को
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