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मैं उसके इश्क़ में अब क्या से क्या नहीं हो रहा

मगर वो शख़्स तो फिर भी मेरा नहीं हो रहा


वो कर रहा है मुझे अपनी बंदिशों से रिहा

ये और बात है मैं ख़ुद रिहा नहीं हो रहा


उसे जुदा हुए बरसों गुज़र गए लेकिन

ग़म-ए-फ़िराक़ का मौसम जुदा नहीं हो रहा


मैं थक गया हूँ उसे पूज पूज कर दिल से

मैं क्या करुँ वो तो अब भी ख़ुदा नहीं हो रहा


मुझे पता तो है वो बे-वफ़ाई कर रहा है

ये मेरा ज़र्फ़ है उससे ख़फ़ा नहीं हो रहा


मैं तेरे साथ में रह कर भी ख़ुश नहीं तो फिर

मेरी जाँ मुझसे तेरा हक़ अदा नहीं हो रहा


मुझे तो चाहिए सूरजमुखी के जैसा दिल

अब इस गुलाब से मेरा भला नहीं हो रहा


कभी जिन्हें था बहुत नाज़ ख़ुद के होने का

अब उनके बाद ज़माने में क्या नहीं हो रहा


ये सोचते थे कि सब सामने कहेंगे उसे

अभी मिले हैं तो अर्ज़-ए-गिला नहीं हो रहा 



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