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जब मुझे याद कर रही होगी
आँख शबनम से भर रही होगी
वक़्त बा वक़्त अपने ही अन्दर
साँस दर साँस मर रही होगी
वो थी मूरत हाँ रेत की मूरत
धीरे धीरे बिखर रही होगी
नाज़ुकी से वजूद की अपने
कँपकँपाती सिहर रही होगी
सर से आँचल ढलक गया होगा
शाम छत पर उतर रही होगी
उसकी रंगत लपेट कर ख़ुद में
धूप यारों निखर रही होगी
फूल ही फूल खिल गए होंगे
जब कभी वो जिधर रही होगी
आँखों में इश्क़ दिख रहा होगा
पर ज़बाँ से मुकर रही होगी
हम से पहले भी और कितनों की
ये गली रह-गुज़र रही होगी
ALI ZUHRI
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