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"गौरये"
नहीं चहकते गौरये
अब मुंडेर पे,
न उतरते हैं आंगन में
चुगने गिरे हुए अनाज के दाने
न फुदकते हैं आकर
घरों के छज्जों पर
न फुर्र-फुर्र उड़ते दिखते हैं इधर-उधर
एक खामोशी आ पसरती है
देर शाम
मुंडेर पर अब
और ढो कर ले जाती है
चीटियां
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