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"भूलना"
ऐसा हो सकता है क्या ?
कि एक रोज सुबह धीरे से खोलूँ
जो मूंदी पलकों को अपनी
और बिल्कुल भी याद न रहो
मुझे तुम
सहसा मिट जाए सारा वजूद तुम्हारा
चेतना से मेरी,
मिट जाए तुम्हारी तमाम स्मृतियां
मेरी स्मृति पटल से कुछ यूं
कि भूल जाऊं तुम्हारा नाम,
नैन-नक्स,
चेहरे की हर एक भाव-भंगिमाएँ,
तुम्हारा छुअन
कुछ भी याद न रहे मुझे
एक सुबह जाग कर
ऐसा हो सकता है क्या ?
गर हो तो बताओ
यूँ कतरा-कतरा तुम्हें खुद से निकालना
बहुत तकलीफ दयाक है
- फाल्गुनी रॉय
अगस्त 2019 ,गुड़गांव
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