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छुपा था कहीं
एक संयोग की तलाश मैं
उठा जो तनिक धुंआ
वो उमड़ पड़ा हमरा होकर भी हमी से लड़ पडा
रण हुआ घनघोर रण हुआ
करुणा को त्याग नाश हुआ
स्वयं का ही नाश हुआ
वो काली घटा सा उमड़ पड़ाअपने परायो मैं भेद भुला
वो बरस पड़ा अपनो पर ही बरस पड़ा
वो वह्नि सा था भसम का अभिप्राय था
वो दौड़ पड़ा सबको राख बनाने को दौड़ पडा
वो क्षणिक होकर भी विकराल था
खुद मैं ही महान था
वो रक्त का प्यासा था उसने फिर नाश किया
स्वयं से ही विस्वाशघात किया
स्वयं का ही नाश किया
सब मिट्टी कर उसमें ही जा मिला ।
इसी मिट्टी मैं ही सर्जन का बीज उगता है।
कुछ दशा मे वो देव भी होता है
देव और दानव दोनो को समाय वो विनाश है।
वो मानव का सस्त्र ओर नाश है।
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