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डाकखाने के किसी कोने में
लावारिस किसी चिट्ठी सी
आज पुराने कश्मीर की खबर निकली
सुना है कई और भी चिट्ठियां थी कहीं
जो डाकिए ही डकार गए
न किसीको खबर दी
न कोई ख़बर होने दी
हमने भी कभी खैरियत नहीं पूछी
जैसे भुला देता है कोई
दूर के करीबी, गरीब रिश्तेदार को
आज सच की चीखें सुनाई दीं
दहशतगर्दियों ने दबाए थे गले
हुकूमतों ने सारी खबरें दबाई थी
टुकड़े टुकड़े हुए थे शरीर के भी
विश्वास के भी, ज़मीर के भी
और बाकी सब रहे बेखबर
कुछ अनजाने,कुछ जानबूझ कर
अब जागा है जुनून,
गुस्से में भरे पूछते हैं सवाल
क्यों होने दिया, कैसे होने दिया ये सब
शायद डर है कहीं अंदर
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