
डाकखाने के किसी कोने में
लावारिस किसी चिट्ठी सी
आज पुराने कश्मीर की खबर निकली
सुना है कई और भी चिट्ठियां थी कहीं
जो डाकिए ही डकार गए
न किसीको खबर दी
न कोई ख़बर होने दी
हमने भी कभी खैरियत नहीं पूछी
जैसे भुला देता है कोई
दूर के करीबी, गरीब रिश्तेदार को
आज सच की चीखें सुनाई दीं
दहशतगर्दियों ने दबाए थे गले
हुकूमतों ने सारी खबरें दबाई थी
टुकड़े टुकड़े हुए थे शरीर के भी
विश्वास के भी, ज़मीर के भी
और बाकी सब रहे बेखबर
कुछ अनजाने,कुछ जानबूझ कर
अब जागा है जुनून,
गुस्से में भरे पूछते हैं सवाल
क्यों होने दिया, कैसे होने दिया ये सब
शायद डर है कहीं अंदर
यही देश के हर कोने में हुआ तो
दस्तक तो पूर्व में भी है, दक्षिण में भी
उत्तर में भी है, पश्चिम में भी
सबक बहुत हैं दुनियां में
और झलक है अपनी राजधानी में भी
आओ कि उठाएं बीड़ा अब
न मानवता हो अब तार तार
उजड़ें न कोई घर अब फिर से
इंसानियत न हो फिर शर्मशार
अब न कोई बचपन रूठे
दोस्ती पर न हो अब पीछे से वार
राह कोई अब और नहीं
गर वतन को चमन बनाना है
अंत करो हर दहशत का
गर वतन में अमन बचाना है
चिल्लाओ कि दरिंदगी मंजूर नहीं
फिर जन्नत इस ज़मीं को बनाना है
जो खौफ दिखाए आँख हमें
उसे रौंद के आगे जाना है
जो भी कुर्बानी मांगे वतन,
अब देकर वतन को बचाना है
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