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सुस्ताने लगे हैं लम्हें....

vijay ranavijay rana February 2, 2022
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सरपट भागते वो लम्हे

थम से गए हैं कहीं

अपनी उखड़ी सांसों को समेटते

गुनगुनी धूप में बैठे

सुस्ताने से लगे हैं कहीं 


रात दिन सुबह शाम

जो गुत्थम गुत्था से रहते थे

कोई भी कभी भी

बिन बुलाए आ जाते थे

रूठे रूठे से अब दूर दूर बैठे हैं

सुबह आती है तो 

जिद्दी बच्चे सी पसर जाती है

बिन बुलाए अब 

दिन भी पास नहीं आता

शाम भी बहुत देर तक ठहरती है अब

रात भी देर देर तक सोती ही नहीं


सपने जो आते थे रह रह कर,

पूरे हो गए शायद

खाली सी मगर पूरी सी

नींद हो गई शायद

हर रोज उठ कर लगता है

सुबह मुस्कुरा कर 

इंतजार में बैठी है शायद


अरसा बीत गया यूं ही

 न कभी सुबह से बात की

न शाम से कोई गुफ्तगू

न दिन से मुलाकात की

न रात को कभी थपकी दी


अब आते हैं सब

अपने अपने हिस्से की

महक, धूप, संगीत और सपने लिए

दे जाते हैं लंबे खुशनुमा लम्हें

फुरसत से पास बैठे 

खामोश मुस्कुराते हुए


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