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सरपट भागते वो लम्हे
थम से गए हैं कहीं
अपनी उखड़ी सांसों को समेटते
गुनगुनी धूप में बैठे
सुस्ताने से लगे हैं कहीं
रात दिन सुबह शाम
जो गुत्थम गुत्था से रहते थे
कोई भी कभी भी
बिन बुलाए आ जाते थे
रूठे रूठे से अब दूर दूर बैठे हैं
सुबह आती है तो
जिद्दी बच्चे सी पसर जाती है
बिन बुलाए अब
दिन भी पास नहीं आता
शाम भी बहुत देर तक ठहरती है अब
रात भी देर देर तक सोती ही नहीं
सपने जो आते थे रह रह कर,
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