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इतराता फिरता है मकां कितना गुरुर है खुद पर
कभी पलट कर पूछा नहीं किसी पत्थर का हाल
न कभी नींव से पूछा कैसे संभाला है भार इतना
न दीवारों से कभी पूछा कैसे हुई इतनी बदहाल
शहतीर जो मकां को कांधे पे उठा रखे है हर दम
कभी नजर झुका कर पूछा नहीं उससे भी सवाल
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