जिसकी आभा से उद्भासित
होते सारे नक्षत्र निकर
करता प्रणाम "प्रकाश", जिससे
पाते हैं ज्ञान सब वेद प्रवर।
काम पाश में बंधी नखा से
यों दृग किये रघुनन्दन ऐसे,
"भार्या को दिया वचन है जो
इक्ष्वाकु तोड़ेगा कैसे?
सपत्नीक संग रहना क्या
तुम जैसी स्त्री को भायेगा?
कोई स्वाभिमानी तुम्हारे जैसा
क्या दूसरा पद ले पाएगा?
ये भाई मेरा लक्ष्मण है
सब गुणों से पूर्ण द्विजोत्तम है,
है शीलवान, गुणवान, वीर,
है रूपवान पत्नी विहीन।
नहीं भार्या इसकी संग यहां
है युवक, सरल व सुंदर है,
जो संग तुम्हारा निभा सके
ये ऐसा वीर धुरंधर है।
सुन्दरतम तुम विशालाक्षि
होगी लक्ष्मण की अङ्ग,
होगा मेरु पर सूर्योदय, जैसे
प्रभात का अद्भुत प्रसंग।"
रघुवर के मीठे वचनों से
कामातुर निशिचरी गई छली,
फिर भरकर दंभ रूपसी वो
भ्राता लक्ष्मण की ओर चली।
"मेरे सम सुंदर काया वीर
ना रति में भी तुम पाओगे,
जो संग मेरा स्वीकार करो
दंडक का राज तुम पाओगे।"
सुनकर निवेदन सुमित्रानंदन
जो दक्ष कर शब्दों का चयन,
फिर राक्षसी से यों बोले
उपयुक्त प्रत्युत्तर लक्ष्मण।
"ओ कमलवर्णिनि सुन्दरी
कैसे बनोगी संगिनी,
मैं दास पुरुषोत्तम का हूं
तुम उन्मुक्त वनचारिणी।
हो स्वच्छंद जीवन जिसका
कैसे बन दासी रह सकती,
निश्चय ही राम हैं योग्य पुरुष
जिन संग तुम्हारी योग्य गति।
छोड़ कुरूपा को रघुवर फिर
संग तुम्हारे आयेंगे,
इस डरी, वृद्ध, त्यज्या को प्रभु
फिर क्योंकर देह लगाएंगे।
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