जो रुद्र समान तेज धारी,
भू और नभ का जो भवहारी,
कहता गाथाएं वो अबूझ,
बैठी सुनती सीता सुकुमारी।
अरे भाग्य कैसा दुष्कर,
जो गोदावरी तेरी तट पर,
जो वसंत सब ओर था छाया,
था होने अंत को वह आया!
उतरी नभ से वो निशाचरी,
दिख पड़े सामने वो नरहरि,
खोकर पति को जो थी विपन्न,
देखा नर सब गुणों से सम्पन्न।
आंखें ज्यों शतदल थीं उसकी,
चलता था जैसे गज कोई,
जिसका स्वरुप था काम स्वयं,
वह स्वर्ग अधिपति सोई!
यों बंधे केश, ये नेत्रबिम्ब,
जो किया हृदय का भेदन था,
क्या दोष सूर्पनखा के हृदय का,
मौन माया में प्रणय निवेदन था!
एक ओर जो कुत्सित औ' कुरूप,
एक ओर मनोहर सब स्वरूप,
एक ओर था केवल अंधकार,
एक ओर ना था कोई विकार!
फिर मोहवश, पड़ पाश में,
आसक्त होकर काम से,
जो था विधि लिखित किया,
अहो विधि ने क्या क्रम लिया।
"तपस्वी को क्या भार्या से प्रसंग,
साधु और शर कैसा ये व्यंग,
दानव- भूमि पर करते विचरण,
रखो हे युवक अपना कारण।"
"दशरथ का पुत्र, मै
No posts
No posts
No posts
No posts
Comments