
मजदूरी पर कविता लिखने वालों
इतना मालूम है
कि कविता चंद पंक्तियां भर होती है,
जो तुमको शोहरत की बुलंदियों पर पहुंचा दे शायद
लेकिन कविता रोटी नहीं होती, जिससे पेट की क्षुधा शांत हो पाए।
तुम्हारी कविता का क्या मायना है,
क्या तुमने कभी मजदूरों को एक नजर देखा तक है?
महसूस किया है जब जेठ की तपती गर्मी में
पानी के नाम पर
पसीने और खून की धार एक साथ मुंह में घुसेड़ी जाए?
घिन आ रही है?
सच बताना
क्या घिन आती है उस गलते हुए बेढ़ंगे जिस्म को देखकर?
उसी मज़दूर की मरी हुई रूह को देखकर?
गंध जो उसके जिस्म से निकल रही होती है
उससे तुमको अलबलाते हुए मैंने देखा है
बड़े बड़े पूंजीपतियों को भी देखा है मैंने,
जो पकाते है गरीब मजदूरों का मांस दोपहर में,
और रात को नोच - नोच कर खाते हैं मजदूरी के ठंडे गोश्त को।
तुम तो लिखते हो कि ख़ुदा भी एक मज़दूर है!
कभी किसी मज़दूर की तरफ अदब से देखा है?
किसी मज़दूर के परिवार की रोटी जुगाड़ी है?
थमाई है सलेट किसी मज़दूर की औलाद को,
कभी कोशिश की है उससे छीनने की,
उन आदतों को जो उसको चबा जाएंगी
उसके गिरे हुए आत्मसम्मान को कभी उठाया है?
अगर नहीं, तो सच कहता हूं
मुझे घिन आती है तुमसे,
और तुम्हारे जैसे तमाम निर्घिन छद्म - समाजवादी कवियों से,
जो लिखते रहते हैं बेमतलब की बेकार कविताएं।
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