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फँस गई धार बहते जीवन के
इस दर तो कभी वो दलहीज़
आँखे नम नहीं जो रूकता तन्हा के
लम्हें भी याद आती वो इतिवृत्त के
लौट चलता सदा बस यह सोचकर
कभी तन्हा दो चार होंगी लम्हें के
लेकिन ठिठुर – ठिठुर कर जी लेता मसोसकर
थी आँखे चार होनी किन्तु हुई नहीं
सोचता कभी एक बार एक वक्त
स्वप्न का जगा हूँ कबसे , फिर – फिर से
बूँद – बूँद में समत्व अंकुर – सी कोमल
गागर में सागर – सी भर – भर दूँ जहाँ<
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