
Share0 Bookmarks 21 Reads0 Likes
फँस गई धार बहते जीवन के
इस दर तो कभी वो दलहीज़
आँखे नम नहीं जो रूकता तन्हा के
लम्हें भी याद आती वो इतिवृत्त के
लौट चलता सदा बस यह सोचकर
कभी तन्हा दो चार होंगी लम्हें के
लेकिन ठिठुर – ठिठुर कर जी लेता मसोसकर
थी आँखे चार होनी किन्तु हुई नहीं
सोचता कभी एक बार एक वक्त
स्वप्न का जगा हूँ कबसे , फिर – फिर से
बूँद – बूँद में समत्व अंकुर – सी कोमल
गागर में सागर – सी भर – भर दूँ जहाँ
लेकिन वक्त तो स्वयंलय , करती कहाँ ईक्षा
जो है लीन में वो ही प्रभा तिरती इक्ष में
बँधे मैं स्वयंभू खल के विहीन मैं स्व के
जलती बाट बार – बार क्रन्दन करती मेरी आह
बीत गई अब बेला मेरे तन आँगन की
कब पदचिन्ह् भी लौट चलेगी पंचभूत में
लय भी कहाँ मुझमें जो देगी भी एक पैगाम
तरस गया , तड़प अब देखूँ भी कहाँ ऊर्ध्वंग तस्वीर ?
शब्दार्थ
ईक्षा :- प्रत्याशा
इक्ष :- अनन्त
No posts
No posts
No posts
No posts
Comments