
अँधेरे की लपटों छाया में घिरा
उजालों का आतम था न बिखरा
किस – किस रन्ध्रों में ढूढ़ते थे कभी ?
क्या , कभी , किसी को न मिला कभी ?
बढ़ चली आलम शनैः शनैः , उस ओर
जिस , जिस ओर था स्वेद ही स्वेद
इति के पन्नों की धूल – सी वों दास्तां देखो !
आँशू – आँशू की पलकों को देखा कभी किसी ने
घेर रहा मुख के वों कोमल बून्द नयनों के
उसमें भी दिखा परिपूर्ण नहीं , कुछ कशिश बाक़ी
इति देखा ! इति का , तम की भी याद करें कौन ?
प्रभा थी उज्ज्वलित , कल भी अब भी वों ही
समर – समर के जिसे शौक , मर मिटे वों देश के
मिट्टी – मिट्टी के मिलें ताज , जिसे सर्वस्व निछावर कर दें प्राण
मै खोजा उस काल के तस्वीर में , जिसमें छिपा महाज्ञान !
लौट चला प्रतिध्वनि , जिसके पीछे छुटती दिवस सार
पन्थ – पन्थ पंक के पद्म बना मैं , कबसे था अद्रि मैं
महोच्चार बज उठी उर में , किस सर के उच्च – उच्च के उच्चार ?
शंखनाद भी थी महासमर के , जिस ओर थे श्रीकृष्ण सुदर्शन
अर्जुन गांडीव ब्राहस्त्र के , भीष्म – द्रोण – कर्ण के केतन
अभिमन्यु था मैं अकेला , उस ओर था चक्रव्यूह रक्तोच्चार
बढ़ – बढ़ चला रण के रणधीर , अब पताका उसकी स्वच्छन्द दिव के
वर्ण – स्वर – व्यंजन – शब्द बना , हुआ प्रस्फुटित जीवन महाज्ञान सार
काव्य – महाकाव्य , वेद – वेदान्त के नदीश में , कौन फिर बन चला तस्वीर ?
जो बना फिर कहाँ पाया वों विभु के त्रिदिव पन्थ पखार त्रिपथगा
जो पाया बना अवधूत , जिसे निर्वाण स्वम्ईहा पद् वन्दन करें त्रिदश – यम – मनु
इस अर्ध्य महार्घ के अर्पण करें स्वयम् आपगा – तुंग – अचल – अभ्र नतक्षिख को
वात – कर – ख़ग – सोम – निशा निमंत्रण दें रहा कबसे खड़ा एक पग पै अपने पंथ के धोएँ धार
जोन्ह – ज्योति , मही – तत्व स्पर्श करें रहें नत में घनप्रिया घन के है घनघोर उच्चार
मधु – पिक , झष – तोय कर रहें जोह , एक पग दें जा मेरे भव में , हो जाऊँ धन्य – धन्य
देख ज़रा अंतर्मन के लय जाग्रत है या नहीं , तू भी जा जिस पन्थ में मै सम्प्रति
एक ख़ग जा रहा प्राची में , क्या क्षितिज में या ऊर्ध्वंग किस लय में दें रहा पयाम
स्वयं जगा , अब देखो किस – किस दिवस के देते प्रतीर , क्या जगा कांति या छाँव पंक के ?
अणु , दो अणु फिर सृष्टि निर्माण , कण – कण में देखे कौन – सी चित्र – तस्वीर ?
लय – स्वर कुदरत के स्वं में बँधे जो दें रहा जीव – जगत सार , अब दें वों महोपदेश कर्मेण
पन्थ में सिन्धु या अद्री के , तू मत देख , बढ़ चल निरन्तर स्वं पन्थ के
उर भी दहल - कहर उठी , दम्भ भरा संसार किस ओर उमड़ पड़ा
जाग्रत थी फिर देख भ
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