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चक्रव्यूह रक्तोच्चार

Varun Singh GautamVarun Singh Gautam January 17, 2022
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अँधेरे की लपटों छाया में घिरा

उजालों का आतम था न बिखरा

किस – किस रन्ध्रों में ढूढ़ते थे कभी ?

क्या , कभी , किसी को न मिला कभी ?

बढ़ चली आलम शनैः शनैः , उस ओर

जिस , जिस ओर था स्वेद ही स्वेद

इति के पन्नों की धूल – सी वों दास्तां देखो !

आँशू – आँशू की पलकों को देखा कभी किसी ने

घेर रहा मुख के वों कोमल बून्द नयनों के

उसमें भी दिखा परिपूर्ण नहीं , कुछ कशिश बाक़ी




इति देखा ! इति का , तम की भी याद करें कौन ?

प्रभा थी उज्ज्वलित , कल भी अब भी वों ही

समर – समर के जिसे शौक , मर मिटे वों देश के

मिट्टी – मिट्टी के मिलें ताज , जिसे सर्वस्व निछावर कर दें प्राण

मै खोजा उस काल के तस्वीर में , जिसमें छिपा महाज्ञान !

लौट चला प्रतिध्वनि , जिसके पीछे छुटती दिवस सार

पन्थ – पन्थ पंक के पद्म बना मैं , कबसे था अद्रि मैं

महोच्चार बज उठी उर में , किस सर के उच्च – उच्च के उच्चार ?

शंखनाद भी थी महासमर के , जिस ओर थे श्रीकृष्ण सुदर्शन

अर्जुन गांडीव ब्राहस्त्र के , भीष्म – द्रोण – कर्ण के केतन

अभिमन्यु था मैं अकेला , उस ओर था चक्रव्यूह रक्तोच्चार

बढ़ – बढ़ चला रण के रणधीर , अब पताका उसकी स्वच्छन्द दिव के




वर्ण – स्वर – व्यंजन – शब्द बना , हुआ प्रस्फुटित जीवन महाज्ञान सार

काव्य – महाकाव्य , वेद – वेदान्त के नदीश में , कौन फिर बन चला तस्वीर ?

जो बना फिर कहाँ पाया वों विभु के त्रिदिव पन्थ पखार त्रिपथगा

जो पाया बना अवधूत , जिसे निर्वाण स्वम्ईहा पद् वन्दन करें त्रिदश – यम – मनु

इस अर्ध्य महार्घ के अर्पण करें स्वयम् आपगा – तुंग – अचल – अभ्र नतक्षिख को

वात – कर – ख़ग – सोम – निशा निमंत्रण दें रहा कबसे खड़ा एक पग पै अपने पंथ के धोएँ धार

जोन्ह – ज्योति , मही – तत्व स्पर्श करें रहें नत में घनप्रिया घन के है घनघोर उच्चार

मधु – पिक , झष – तोय कर रहें जोह , एक पग दें जा मेरे भव में , हो जाऊँ धन्य – धन्य

देख ज़रा अंतर्मन के लय जाग्रत है या नहीं , तू भी जा जिस पन्थ में मै सम्प्रति

एक ख़ग जा रहा प्राची में , क्या क्षितिज में या ऊर्ध्वंग किस लय में दें रहा पयाम

स्वयं जगा , अब देखो किस – किस दिवस के देते प्रतीर , क्या जगा कांति या छाँव पंक के ?

अणु , दो अणु फिर सृष्टि निर्माण , कण – कण में देखे कौन – सी चित्र – तस्वीर ?

लय – स्वर कुदरत के स्वं में बँधे जो दें रहा जीव – जगत सार , अब दें वों महोपदेश कर्मेण

पन्थ में सिन्धु या अद्री के , तू मत देख , बढ़ चल निरन्तर स्वं पन्थ के





उर भी दहल - कहर उठी , दम्भ भरा संसार किस ओर उमड़ पड़ा

जाग्रत थी फिर देख भ

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