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इक शख़्स मेरा रहनुमा बन रस्ता बताता रहा,
गिरने पर मेरा हाथ थाम हर बार उठाता रहा।
उसका वो साया काफ़ी कुछ मुझ जैसा ही था,
मानो ख़ुद से ही अब तक मैं हाथ मिलाता रहा।
एक आईने से लड़ता रहा तमाम उम्र मैं, और,
वो आईना मुझे अपनों का चेहरा दिखाता रहा।
मेरी माँ कहती थी दिल मत तोड़ना किसी का,
इसलिए मैं आज तक हर रिश्ता निभाता रहा।
उस इक दर्द ने जब बढ़कर जीना मुहाल किया,
मैं हरपल रोकर भी अक्सर सबको हँसाता रहा।
गुनाह कर के भी तो गुनहगार नहीं होगे तुम,
बस यही एक डर मुझे हर लम्हा सताता रहा।
ये ख़ामोशी जब-जब भर गई है ज़हन में मेरे,
मैं ख़ामोशी के पर्वत पर जाके चिल्लाता रहा।
जब भी मैं हारा हूँ इस ज़िन्दगी की जंग में,
कुछ अधूरे ख़्वाब ख़ुद को याद दिलाता रहा।
तुम्हें क्या लगा कि खेलना सिर्फ़ तुम्हें आता है,
मैं तो खेल से हटकर ही बारहा तुम्हें हराता रहा।
जिसे ताउम्र देकर भी, इक दिन ख़ुदका न मिला,
वो शख़्स रेत पर अपना नाम बनाता मिटाता रहा।
-वर्षा सक्सेना
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