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जंगल. नदियों. पहाड़ सब
पे बाजार की जमी निगाह
धनागम के लिए कर रहे वो
उन्हें मनमाने ढंग से तबाह
धन्नासेठों में दिखती नहीं
कभी प्रबुद्धजनों को खोट
गाहे बगाहे वे लिया करते
खुद भी बाजार का सपोर्ट
चारों ओर चल रहा विकास
के नाम पे विनाश का खेल
मानस पर काबिज बाजार
की ताकतें खेल रहीं खेल
काश देश के जन जन में
हो चेतना का सही प्रवाह
टिकाऊ विकास के लिए सब
कर सकें भूमिका का निर्वाह
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